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________________ पातञ्जलयोग एवं जैनयोग का तुलनात्मक अध्ययन जीवन्मुक्त, अनन्तज्ञानसुखादिमय, शुद्ध, सिद्ध, परमात्म अवस्था को प्राप्त करता है। धर्मसंन्यास, योगसंन्यास ओर सर्वसंन्यास के रूप में त्रिविध संन्यास का निरूपण करके यह सूचित किया गया है कि जैन-परम्परा में 'गुणस्थान' नाम से उल्लिखित आध्यात्मिक विकासक्रम का उक्त त्रिविध संन्यास में ही अन्तर्भाव हो जाता है। यहाँ यह ध्यातव्य है कि आ० हरिभद्रसूरि ने सामर्थ्ययोग को जैन-सम्मत 'गुणस्थान' संज्ञक सोपानपद्धति के अनुरूप संयोजित करने का प्रयास किया है, जबकि इच्छायोग व शास्त्रयोग में उनकी ऐसी कोई अभिरुचि दृष्टिगोचर नहीं होती। डा० के० के० दीक्षित ने भी इस से अपनी सहमति प्रकट की है। __ इस प्रकार त्रिविधयोग (इच्छा, शास्त्र, सामर्थ्य) योग-साधना की संभव अवस्थाओं का त्रिविध विभाजन प्रतीत होते हैं। कुछ विद्वानों ने भी इस तथ्य की ओर ध्यान आकृष्ट किया है। डा० देसाई ने इनकी तुलना पतञ्जलि के मुद्, मध्य और अधिमात्र इन तीव्र संवेगों से की है। वह यह मानते हैं कि आचार्य हरिभद्रसरि ने पतञ्जलि के ही सिद्धान्त को अपनी नवीन शैली द्वारा त्रिविध योगों के रूप में चित्रित किया है। ___ उक्त त्रिविधयोग निरूपण से आo हरिभद्रसूरि पर गीता का प्रचुर प्रभाव दृष्टिगत होता है। 'सामर्थ्ययोग' का विवेचन करते समय आ० हरिभद्रसूरि ने संन्यास शब्द का प्रयोग किया है। संन्यास शब्द गीता में बहुतायत से प्रयुक्त हुआ है। (ङ) अध्यात्मादि पंचविध योग आध्यात्मिक दृष्टि से आ० हरिभद्रसूरि ने योग के पांच भेद किये हैं - अध्यात्म, भावना, ध्यान, समता और वृत्तिसंक्षय। ये पांचों उत्तरोत्तर श्रेष्ठ हैं। वस्तुतः इन पांचों प्रकार के योगों को आ० हरिभद्र ने चारित्र के अन्तर्गत परिगणित किया है। योगबिन्दु में व्यावहारिक दृष्टि से अध्यात्म को योग के समानार्थक माना गया है, जबकि इसी ग्रंथ में अध्यात्म और वृत्तिसंक्षय दोनों के लिए भी 'योग' शब्द प्रयुक्त हुआ है। आo हरिभद्र ने अपने सभी ग्रन्थों में जप, तप, स्वाध्याय, ध्यान, आसन, व्रतपालन आदि सभी का सामान्य दृष्टि से एक ही शब्द 'धर्मव्यापार' के अन्तर्गत परिगणन किया है। उनका कहना है कि चारित्र के देशतः, सर्वतः १. ललितविस्तरा, पंजिका व्याख्या, पृ०५६ २. Yogadrstisamuccaya&Yogavimsiki, p. 21-22 3. These three viz. Icchāyoga, Sāstrayoga and Samarthyayoga are the three broad divisions of all the possible stages of yoga. - Studies in Jain Philosophy, p. 300-301 8. In short my surmise is that this classification of the three yogas is not a 'new classification at all nor does it present any new type of yoga but they are the three categories of the intensity of Samvega for the attainment of the goal. This is fully supported by the above comparision with Patanjali's Sūtras. - Haribhadra's Yoga Works and Psycosynthesis, p.51-52 (क) अध्यात्म भावना ध्यानं समता वृत्तिसंक्षयः । मोक्षेण योजनाद् योग एष श्रेष्ठो यथोत्तरम् ।। - योगबिन्दु, ३१ (ख) अध्यात्म भावना ध्यानं समता वृत्तिसंक्षयः । योगः पंचविधः प्रोक्तो योगमार्गविशारदैः ।।-द्वात्रिंशदद्वात्रिंशिका, १८/१ ६. अत्र पूर्वोदितो योगोऽध्यात्मादिः संप्रवर्तते ।। - योगबिन्दु, ३५७ (क) संक्षेपात्सफलो योग, इति सन्दर्शितो ह्ययम् । आद्यन्तौ तु पुनः स्पष्ट, बूमोऽस्यैव विशेषतः ।। - वही, ३७६ संक्षेपात् समासात् सफलः सह फलेन योग इति - एवं सन्दर्शितः। हिः - स्फुटवृत्त्या अयमध्यात्मादिभेदः। आद्यन्तौ तु पुनराद्यन्तावेव पुनरध्यात्मवृत्तिसंक्षयलक्षणौ भेदौ स्पष्टं........ | - योगबिन्दु, ३७६, स्वो० वृ० 9 (ख) संश Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001981
Book TitlePatanjalyoga evam Jainyoga ka Tulnatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAruna Anand
PublisherB L Institute of Indology
Publication Year2002
Total Pages350
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size25 MB
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