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________________ योग का स्वरूप एवं भेद सामर्थ्ययोग में जिन धार्मिक प्रवृत्तियों का आचरण किया जाता है, उनसे अन्तरात्मा में कैसी प्रक्रिया होती है, अर्थात् किस प्रकार के भाव उत्पन्न होते हैं, और किस प्रकार की आत्मपरिणति होती है, इसको शब्दों द्वारा व्यक्त नहीं किया जा सकता। इसलिए हरिभद्रसूरि ने इसे अनिर्वचनीय कहा है।' श्री देसाई के अनुसार 'सामर्थ्ययोग' नामक तृतीय योग-श्रेणी में साधक अपने लक्ष्य तक अविलम्ब पहुँचने की अतुल सामर्थ्य प्राप्त करता है। उसे एक ऐसी अन्तर्दृष्टि प्राप्त होती है, जिससे शास्त्रों पर तो नवीन प्रकाश पड़ता ही है साथ ही मोक्षमार्ग भी प्रकाशित होता है। श्री देसाई के इस मन्तव्य से साधक की तीव्र सामर्थ्य प्रकट होती है। सामर्थ्ययोग के भेद ___ आ० हरिभद्रसूरि ने सामर्थ्ययोग के दो भेद किये हैं - १. धर्मसंन्यासयोग और २. योगसंन्यासयोग। 'धर्म' शब्द से चारित्रमोहनीयकर्म के क्षयोपशम (क्षय+उपशम) के द्वारा निष्पन्न क्षमा आदि धर्म गहीत हैं और 'योग' शब्द से कायादि क्रिया। कायादि क्रिया में कायोत्सर्ग आदि धर्मव्यापार परिगणित होते हैं। 'संन्यास' शब्द का अर्थ है 'निवृत्ति' । निवृत्ति, उपरम, त्याग - ये एकार्थवाचक शब्द हैं। जिस योग की धर्मसंन्यास संज्ञा है वह 'धर्मसंन्याससंज्ञित' योग कहलाता है। पाणिनीय व्याकरण के अनुसार संज्ञा शब्द में इतच् प्रत्यय जोड़ने से 'संज्ञित' शब्द बना है। इसी प्रकार जिसकी योगसंन्यास संज्ञा है, वह 'योगसंन्याससंज्ञित' योग कहलाता है। जिसप्रकार सांसारिक धर्मों, अर्थात् संसार का त्याग करने वाले व्यक्ति को संन्यासी कहा जाता है, उसीप्रकार क्षायोपशमिक (क्षयोपशम से होने वाले क्षमा आदि) धर्मों के त्याग करने को धर्मसंन्यासयोग' और कायादि योगों के त्याग करने को 'योगसंन्यासयोग' नाम दिया गया है। क्षमादि धर्मों की निवृत्ति क्षपकश्रेणी (आठवें गुणस्थान से) पर आरूढ़ योगी को होती है, अतः वही धर्मसंन्यास योगी है। समस्त कायादि व्यापारों की निवृत्ति आयोज्यकरण शैलेशी अवस्था (चौदहवें गुणस्थान) में सम्भव है, अत: वही स्थिति "सर्वसंन्यासयोग' की स्थिति है। योग-साधना का प्रारम्भिक सोपान ‘सर्वधर्मव्यापारयोग' है, उसकी अपेक्षा 'धर्मसंन्यासयोग' और 'योगसंन्यासयोग' दोनों उच्च कोटि के योग हैं। उनमें भी 'योगसंन्यासयोग' को सर्वोच्च माना गया है, क्योंकि धर्मसंन्यास होने पर आत्मा १. सामर्थ्ययोगोऽवाच्योऽस्ति। - योगदृष्टिसमुच्चय, गा०८ 2 But in the third type of "yoga by exertion" the Sādhaka achieves such immense capability that he, like Ganapati, can reach the goal in no time. Like Ganapati, he gains an insight which sheds new light on even the scriptures and illumnates the path for the realization of the goal of Mokşa. -Haribhadra's Yoga Works and Psychosynthesis, p.51-52 (क) द्विधाऽयं धर्मसंन्यास-योगसंन्याससंज्ञितः । क्षायोपशमिका धर्मा योगाः कायादिकर्म तु ।। - योगदृष्टिसमुच्चय, गा०६ (ख) द्वात्रिंशतद्वात्रिंशिका १६/११ एवं उस पर स्वो० १० ४. संन्यासो निवृत्तिरुपरम इत्येकोऽर्थः । - ललितविस्तरा, गा०७ पर पञ्जिका टीका० पृ०५४ ततो धर्मसंन्याससंज्ञासंजाताऽस्येति धर्मसंन्यासंज्ञितः। - योगदृष्टिसमुच्चय, गा०६ स्वो० वृ० ६. पाणिनीय्याकरण, ५/२/३६; योगदृष्टिसमुच्चय, गा०६ स्वो० वृ० एवं योगसंन्याससंज्ञा संजाताऽस्येति योगसंन्याससंज्ञितः। - योगदृष्टिसमुच्चय, गा०६ स्वो० वृ० कायवाङ्मनःकर्मयोगः। - तत्त्वार्थसूत्र, ६/१ 'आयोज्यकरण उस क्रिया का नाम है जिसमें अवशिष्ट नाम, गोत्र, वेदनीय एवं आयु- इन चार अघातिकर्मों का यथायोग्य समय क्षय होता है। कर्मों की क्षययोग्य अवस्था उपस्थित करने की क्रिया का प्रयत्न आयोज्यकरण है। _ - योगदृष्टिसमुच्चय, गा० ८ स्वो०० एवं द्वात्रिंशद्वात्रिंशिका, १६/१२ स्वो० वृ० १०. द्वितीयापूर्वकरणे प्रथमस्तात्त्विको भवेत् । आयोज्यकरणादूवं द्वितीय इति तद्विदः ।। - योगदृष्टिसमुच्चय, गा० १० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001981
Book TitlePatanjalyoga evam Jainyoga ka Tulnatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAruna Anand
PublisherB L Institute of Indology
Publication Year2002
Total Pages350
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size25 MB
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