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पातञ्जलयोग एवं जैनयोग का तुलनात्मक अध्ययन
वस्तुतः शास्त्र से सर्वज्ञता एवं अयोगिकेवलीत्व के उपायों का बोध शक्य होने पर भी मोक्ष नहीं होता। इसीलिये यह मानना होगा कि इसके अतिरिक्त विशिष्ट आत्म-सामर्थ्य की प्रधानता वाला सामर्थ्ययोग नामक कोई अवर्णनीय धर्म-व्यापार अपेक्षित है, जिससे तुरन्त ही सर्वज्ञत्वादि की सिद्धि प्राप्त हो। यह सामर्थ्ययोग प्रातिभज्ञान से समन्वित होता है। जिस प्रकार प्रगाढ़ अन्धकार में से बाहर निकलते समय पहले अल्प प्रकाश दिखाई देता है उसके बाद पूर्ण प्रकाश, उसी प्रकार केवलज्ञान के प्रकट होने से पहले सूर्य के प्रकाश से पूर्व ऊषा के प्रकाश जैसा प्रातिभज्ञान सामर्थ्ययोग के साथ प्रकट होता है। प्रातिभज्ञान न तो मतिश्रुतादि पांचों ज्ञानों में गिना गया है, और न ही उक्त पांचों के अतिरिक्त कोई छठा ज्ञान है। मतिज्ञान से लेकर मनःपर्यायज्ञान तक के चार ज्ञान उत्कृष्ट रूप में होने के अनन्तर और केवलज्ञान होने के पूर्व प्रातिभज्ञान होता है, और वह केवलज्ञान रूप सूर्य के उदय में उसके पूर्व अरुणोदय के प्रकाश के सदृश होने से मतिज्ञान से पृथक् सुनने में नहीं आता। लेकिन यह एक ज्ञान अवश्य है, क्योंकि केवलज्ञान के पूर्व ऐसे चार ज्ञानों की उत्कृष्ट अवस्था संगत हो सकती है, और उसी विशिष्ट अवस्था का नाम 'प्रातिभज्ञान' है। ___ 'प्रातिभज्ञान' में क्षायोपशमिक (क्षय + उपशम) भाव होता है, जबकि केवलज्ञान में क्षायिक भाव होता है। धर्मव्यापार के प्रकरण से सामर्थ्ययोग भी धर्मव्यापार ही है। लेकिन क्षपक श्रेणी के पुरुषार्थ के अन्तर्गत जो धर्मव्यापार है. वही सामर्थ्ययोग में ग्रहण किया जाता है। क्षपक श्रेणी का परुषार्थ वह है. जिसमें शुक्लध्यान के बल पर अन्तर्मुहूर्त मात्र काल में मोहनीयकर्म की प्रकृतियों का क्षय करते-करते पूर्ण वीतराग दशा प्राप्त होती है, और बाद में शीघ्र ही ज्ञानावरणकर्म, दर्शनावरणकर्म एवं अंतरायकर्म का मूलतः नाश हो जाता है। फलस्वरूप सर्वज्ञत्व अर्थात् केवलज्ञान प्रकट होता है, जिसमें समस्त जगत् के समस्तकालवर्ती निखिल द्रव्यों का सर्वपर्याय सहित साक्षात्कार प्रकट हो जाता है।
१. न चैतदेवं यत्तस्मात् प्रातिभसंगतः।
सामर्थ्ययोगोऽवाच्योऽस्ति सर्वज्ञत्वादिसाधनम् ।। - योगदृष्टिसमुच्चय, ८ (क) न केवलं, न च ज्ञानांतरमिति रात्रिंदिवारुणोदयवत्। अरुणोदयो हि न रात्रिंदिवातिरिक्तो न च तयोरेकोपि वक्तुं
पार्यते । एवं प्रातिभमप्येतन्न तदतिरिक्तं न च तयोरेकमपि वक्तुं शक्यते।- योगदृष्टिसमुच्चय, गा० ८ स्यो० वृ० (ख) प्रातिभज्ञानगम्यस्तत्सामर्थ्याख्योऽयमिष्यते ।
अरुणोदयकल्पं हि प्राच्यं तत्केवलार्कतः ।। रात्रेर्दिनादपि पृथग्यथा नो वारुणोदयः ।
श्रुताच्च केवलाज्ञानात्तथेदमपि भाव्यताम् ।। - द्वात्रिंशदद्वात्रिंशिका, १६/७.५ ३. (क) असदेतत्. मत्यादिपंचकातिरेकेणास्याऽश्रवणात्। उच्यते, चतुर्ज्ञानप्रकर्षोत्तरकालभावि केवलज्ञानादधः तदुदये
सवित्रालोककल्पम् इति न मत्यादिपंचकातिरेकेणास्य श्रवणम् । अस्ति चैतद्, अधिकृता -(अधिकत्वा - प्र.) यस्थोपपत्तेरिति
एतद्विशेष एव प्रातिभमिति कृतं प्रसंगेन। - ललितविस्तरा, पृ०६१ (ख) ननु प्रातिभमपि श्रुतज्ञानमेव अन्यथा षष्ठज्ञानप्रसंगात्तथा च कथं शास्त्रातिक्रान्तविषयत्वमस्येत्यत आह - तातिभं हि
केवलार्कतः केवलज्ञानभानुमालिनः प्राच्यं पूर्वकालीनं अरुणोदयकल्पम्।-द्वात्रिंशदद्वात्रिंशिका, १६/७ स्वो०१० पातञ्जलयोगसूत्र में भी 'प्रातिभज्ञान' का उल्लेख हुआ है। दोनों परम्पराओं में वर्णित 'प्रातिभज्ञान' का तुलनात्मक विवेचन 'आध्यात्मिकविकासक्रम' नामक अध्याय में किया गया है। तत्काल एव तथोत्कृष्टक्षयोपशमवतो भावात् श्रुतत्वेन तत्त्वतोऽसंव्यवहार्यत्वान्न श्रुतं, क्षायोपशमिकत्वादशेषद्रव्यपर्यायाऽविषयत्यान्न केवलमिति। - योगदृष्टिसमुच्चय, गा० ८ स्वो० वृ० सामर्थ्ययोगः प्रक्रमाद्धर्मव्यापार एव क्षपक श्रेणिगतो गृह्यते, ......| - वही, ललितविस्तरा, पृ० ५४; तत्त्वार्थसूत्र, १/३०; प्रवचनसार, १/२१
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