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योग का स्वरूप एवं भेद
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कहलाती है, को उत्तम योग माना गया है। इसकी उत्तमता का कारण यह है कि इसमें शीघ्र ही वीतराग सर्वज्ञता की प्राप्ति रूप श्रेष्ठ फल उत्पन्न होता है।'
पूर्ववर्ती दोनों योगों में शास्त्रों को अत्यधिक महत्ता प्रदान की गई है, जबकि सामर्थ्ययोग में जो मोक्षउपाय अपेक्षित होते हैं, उनका परिज्ञान शास्त्रों से सम्भव नहीं होता, क्योंकि शास्त्रों में समस्त असंख्य उपायों का शब्दशः निर्देश होना कठिन है। शास्त्र का इतना ही कार्य होता है कि वह वस्तु के साथ साधक का हस्तस्पर्श करा सके।
डा० के० के० दीक्षित के अनुसार आ० हरिभद्र के इस कंथन का आशय यह है कि शास्त्रों से तो मोक्ष रूप परमपद की प्राप्ति के मार्ग के प्राथमिक स्तर का ज्ञान हो सकता है, किन्तु आध्यात्मिक साधना के उच्च धरातल पर अनुभूति मात्रगम्य परिणामों का विवरण शब्दों के माध्यम से सम्भव नहीं है। इसी विषय में श्रीविजयभुवनभानुसूरीश्वर जी महाराज ने कहा है कि योग के साधनों का पालन करने से आत्मा में जो अन्तर्निहित शक्ति अथवा बल उत्पन्न होता है, तदनुरूप विशुद्ध व विशुद्धत्तर होने वाले संयम-स्थानों
त् सयम के अध्यवसायों का स्वरूप वर्णन शास्त्रों द्वारा नहीं किया जा सकता। उन्हें तो अनुभव द्वारा ही जाना जा सकता है। इससे यह नहीं समझना चाहिये कि शास्त्र निरर्थक हैं, क्योंकि सामर्थ्ययोग की अवस्था प्राप्त करने के लिए जो शास्त्रयोग और उसके उपाय आवश्यक हैं, वे शास्त्रों से ही ज्ञात हो सकते हैं। परन्तु हरिभद्रसूरि लिखते हैं कि यदि शास्त्रों से ही मोक्ष पर्यन्त सब उपायों की विशिष्ट जानकारी प्राप्त हो सकती, तो उनसे ही केवलज्ञान की भांति सम्पूर्ण उपायों का बोध होने से सर्वसाक्षात्कारिता सिद्ध हो जाती। फलतः आगमश्रवण करने वालों को श्रवण करते ही सर्वज्ञता सिद्ध हो जाती। क्योंकि मोक्ष के अद्वितीय उपाय अयोगकेवलीत्व का शास्त्रों से ही ज्ञान हो जाने से उसको व्यवहार में लाना सम्भव हो जाता और अविलम्ब मोक्ष प्राप्त हो जाता। परन्तु वास्तव में ऐसा कभी होता नहीं।
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१. 'शास्त्रसन्दर्शितोपायः' इति सामान्येन शास्त्राभिहितोपायः........ | 'तदतिक्रान्तगोचर' इति शास्त्रातिक्रान्तविषयः ......।
- शक्त्युनेकात्-शक्तिप्राबल्यात् 'विशेषेण' न सामान्येन शास्त्रातिक्रान्तगोचरः, सामान्येन फलपर्यवसानत्वाच्छास्त्रस्य । 'सामर्थ्याख्योऽयं - सामर्थ्ययोगाभिधानोऽयं योग: 'उत्तमः सर्वप्रधानो, अक्षेपेण प्रधानफलकारणत्वादिति। - योगदृष्टिसमुच्चय, ५ स्वोवृ० । (क) सिद्धयाख्यपदसम्प्राप्तिहेतुभेदा न तत्त्वतः ।
शास्त्रादेवावगम्यन्ते सर्वथैवेह योगिभिः || - योगदृष्टिसमुच्चय,६ (ख) शास्त्रादेव न बुध्यन्ते सर्वथा सिद्धिहेतवः । - द्वात्रिंशदद्वात्रिंशिका, १६/६ हस्तस्पर्शसम शास्त्रं तत् एव कथञ्चन ।
अत्र तन्निश्चयोऽपि स्यात् तथा चन्द्रोपरागवत् ।। - योगबिन्दु, ३१६ 8. This according to him, dependence on scriptures characterizes the lower and middle stages of spiritual; development; but it does not characterize the highest of these stages.
-Yogadrstisamuccaya &Yogavimsika, p.20 योगदृष्टिसमुच्चय(गुजराती व्याख्या), पृ० ११४ (क) सर्वथा तत्परिच्छेदात साक्षात्कारित्ययोगतः ।
तत्सर्वज्ञत्वसंसिद्वेस्तदा सिद्धिपदाप्तितः ।।- योगदृष्टिसमुच्चय,७ (ख) शास्त्रादेव न बुध्यन्ते सर्वथा सिद्धिहेतवः ।
अन्यथा श्रवणादेव सर्वज्ञत्वं प्रसज्यते ।। - द्वात्रिंशदद्वात्रिंशिका, १६/६ सर्वथा सर्वैः प्रकारैः । शास्त्रादेव न बुध्यन्ते । अन्यथा शास्त्रादेव सर्वसिद्धिहेतूनां बोधे सर्वज्ञत्वं प्रसज्यते। श्रवणादेय सर्वसिद्धिहेतुज्ञाने सार्वज्ञयसिद्धयुपधायकोत्कृष्टहेतुज्ञानस्याप्यावश्यकत्वात्, तदुपलंभाख्यस्वरूपाचरण
रूपचारित्रस्यापि विलम्बाभावात् सर्वसिद्धयुपायज्ञानस्य सार्वज्ञयव्याप्यत्वाच्च। - वही, १६/६ पर स्वो० वृ० ७. मुक्तिपदाप्तेः, अयोगिकेवलित्वस्यापि शास्त्रादेव सद्भावावगतिप्रसंगादिति। - योगदृष्टिसमुच्चय, गा०७ स्वो० वृ०
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