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________________ 68 पातञ्जलयोग एवं जैनयोग का तुलनात्मक अध्ययन २. शास्त्रयोग __'शास्त्रयोग' साधना की द्वितीय श्रेणी है। इसमें शास्त्रप्रधान धर्म-व्यापार होने से इसे 'शास्त्रयोग' नाम दिया गया है। यथाशक्ति, प्रमादरहित एवं श्रद्धासम्पन्न होकर साधक तीव्रबोध से युक्त, आगमवचनानुसार कालादि भंग से अखण्डित जिस धर्मव्यापार में प्रवृत्त होता है, उसे 'शास्त्रयोग' कहा जाता है। शास्त्रयोग' में साधक को सर्वप्रथम शास्त्रों में निर्दिष्ट प्रमादों का त्याग करना आवश्यक है। प्रमादरहितता के साथसाथ शास्त्रयोग में साधक के विशिष्ट प्रकार का मोह नष्ट होकर स्वसंप्रत्यय होना चाहिए। स्वसंप्रत्यय का अर्थ है-ऐसी उच्च प्रकार की श्रद्धा का उत्पन्न होना जिससे हृदय में अनुभव रूप शुभ प्रतीति और तीव्ररुचि हो, एवं जो अधिकाधिक आत्मबलस्थैर्य आदि की प्रेरक हो। अनुभव रूप शुभ प्रतीति का तात्पर्य है - धर्मप्रवृत्ति का शास्त्रोक्त कठोर पालन। संक्षेप में शास्त्रयोग की विशेषता है - 'अखण्डित योगसाधना'। अखण्डित योग-साधना के लिए आ० हरिभद्र ने निम्नलिखित साधन आवश्यक बताये है -१ अप्रमाद, २. विशिष्टश्रद्धा एवं ३. तीव्रबोध। साधना की इस अवस्था में साधक की आगमों का अनुसरण करने की तीव्र इच्छा रहती है। उसकी न तो अपनी वैयक्तिक दृष्टि होती है और न ही वह अपने लक्ष्य के प्रति स्वावलम्बी होता है। ३. सामर्थ्ययोग ' 'सामर्थ्ययोग' 'शास्त्रयोग' की अपेक्षा अत्यधिक बलवान होता है। हरिभद्रसूरि ने इसे तीनों योगों में श्रेष्ठ कहा है। यह योग पूर्ववर्ती दोनों योगों की सिद्धि के पश्चात् ही संभव होता है। हरिभद्रसूरि के अनुसार शास्त्रों में जिसका उपाय बताया गया है, आत्मशक्ति के वैसे विशिष्ट विकास के कारण जिसका विषय शास्त्र से भी अतिक्रान्त -- अतीत है, वैसा उत्तम योग 'सामर्थ्ययोग' है। शास्त्रयोग में उपाय यद्यपि शास्त्र द्वारा निर्दिष्ट होते हैं, किन्तु शास्त्र से आगे बढ़ जाने वाला पुरुषार्थ प्रकट होता है। इस सामर्थ्ययोग में आत्म-सामर्थ्य की प्रबलता जागृत होती है। ऐसी विशिष्ट शक्ति से सम्पन्न धर्मप्रवृत्ति जो सामर्थ्ययोग - १. शास्त्रप्रधानो योगः शास्त्रयोगः ... 1 - योगदृष्टिसमुच्चय, ४ पर स्वो० वृ० २. (क) शास्त्रयोगस्त्विह ज्ञेयो यथाशक्त्यप्रमादिनः । __ श्राद्धस्य तीव्रबोधेन वचसाऽविकलस्तथा ।। - योगदृष्टिसमुच्चय, ४; (ख) यथाशक्त्यप्रमत्तस्य तीव्रश्रद्धावबोधतः ।। शास्त्रयोगस्त्वखंडाराधनादुपदिश्यते ।। - द्वात्रिंशद्वात्रिंशिका, १६/४ ३. प्रमादों की संख्या स्थानांगसूत्र (६/४) में छ:, तथा गोम्मटसार (जीवकाण्ड) में पन्द्रह बताई गई है। उत्तराध्ययननियुक्ति, गा० १८० में प्रमाद के ५भेद माने गये हैं। ४.. अयमेव विशिष्यते श्राद्धस्य- तथाविधमोहापगमात्स्वसंप्रत्ययात्मिकादिश्रद्धावतः ..... | - - योगदृष्टिसमुच्चय, गा०४, स्वो० वृ० एवं ललितविस्तरा, गा०२ की व्याख्या पृ०५१ ५. योगदृष्टिसमुच्चय, गुजराती व्याख्या, पृ० ८४; ललितविस्तरा, पंजिका व्याख्या, पृ०५१ The second category of 'Yoga by scripture mainly shows the intensity of the Sadhaku to follow the scriptures but had no insight of his own. He is not self-dependent in the matter of reaching the goal nor has he the insight for it. - Haribhadra's Yoga Works and psychosynthesis, p. 51-52 सामर्थ्ययोगाभिधानोऽयं योगः 'उत्तमः' - सर्वप्रधानः तद्भावभावित्वात्.............. | - योगदृष्टिसमुच्चय, ५ स्वो वृ० ८. (क) शास्त्रसंदर्शितोपायस्तदतिक्रान्तगोचरः । शक्त्युद्रेकाविशेषेण सामर्थ्याख्योऽयमुत्तमः ।। - योगदृष्टिसमुच्चय, ५ (ख) शास्त्रेण दर्शितोपायः सामर्थ्याख्योऽतिशक्तितः ।। --द्वात्रिंशद्वात्रिंशिका, १६/५ ६. सामान्येन शास्त्राभिहितोपायः, सामान्येन शास्त्रे तदभिधानात् ........ | - योगदृष्टिसमुच्चय, ५ स्वो०३० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001981
Book TitlePatanjalyoga evam Jainyoga ka Tulnatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAruna Anand
PublisherB L Institute of Indology
Publication Year2002
Total Pages350
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size25 MB
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