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पातञ्जलयोग एवं जैनयोग का तुलनात्मक अध्ययन
जिस चित्तवृत्तिनिरोध रूप योग का कारण जन्म हो, उसे भवप्रत्यय कहा है। भोजदेव ने 'भव' पद का संसार अर्थ करते हुए भव अर्थात् संसार है कारण जिसका उसे 'भवप्रत्यय' कहा है।
भवप्रत्यय असम्प्रज्ञातयोग की प्राप्ति विदेह और प्रकृतिलय-भूमि को प्राप्त सिद्ध योगियों को होती है।
साधक आत्म-स्वरूप के यथार्थ ज्ञान का अभाव होने से केवल भूत या इन्द्रियों में से किसी एक को आत्मा समझकर उसी की उपासना करते हैं और मरणोपरान्त अपने-अपने उपास्य में ही लीन हो जाते हैं, ऐसे साधक विदेह अर्थात् स्थूल देह से रहित होने के कारण संस्कारमात्र-शेष चित्त के द्वारा ही कैवल्य पद का अनुभव करते हैं इसलिए उन्हें विदेह कहा जाता है। और जो प्रकृति, महत्तत्व, अहंकार तथा पञ्चतन्मात्रा रूप अनात्म पदार्थों में से किसी एक को आत्मा मानकर उसी का चिन्तन करते रहते हैं, ऐसे प्रकृतिलीन साधक अपने संस्कार-शेष तथा साधिकार चित्त के साथ शरीरपात के अनन्तर अव्यक्तादि में से अपने-अपने उपास्य में लीन रहते हैं। इसलिए उन्हें प्रकृतिलय कहा जाता है।
विदेह एवं प्रकृतिलय भूमिका में अवस्थित, इन दोनों प्रकार के भवप्रत्ययसाधक योग का अभ्यास पूर्व जन्म में कर चुके होते हैं, उन्हें वर्तमानजन्म में पुनः अभ्यास करने की आवश्यकता नहीं होती। पूर्व जन्म के अभ्यास के संस्कार-बल से उनमें परवैराग्य का उदय होकर, 'विरामप्रत्यय' अर्थात् चित्तवृत्तियों के अभाव के अभ्यास से 'असम्प्रज्ञातयोग' सिद्ध हो जाता है।
२. उपायप्रत्यय
विदेह और प्रकृतिलय भूमिका में स्थित योगियों से भिन्न साधकों को जन्ममात्र से योग में रुचि नहीं होती। ऐसे साधकों को श्रद्धा, वीर्य, स्मृति, समाधि और प्रज्ञा आदि उपायों का अभ्यास करने से सम्प्रज्ञातयोग (समाधि) की प्राप्ति होती है। योग की प्राप्ति के लिए उसमें अभिरुचि को उत्पन्न करने वाले विश्वास का नाम 'श्रद्धा' है। योग-साधना में तत्परता उत्पन्न करने वाले उत्साह का नाम 'वीर्य' है। अनुभूत विषय को न भूलना 'स्मृति' है। चित्त की एकाग्रता “समाधि' है। ज्ञेय वस्तु के ज्ञान का नाम 'प्रज्ञा' है। इन श्रद्धादि उपायों का क्रमशः अभ्यास करते रहने से दृश्य का अत्यन्ताभाव होकर, तद्हेतुकबुद्धिवृत्ति का भी स्वयमेव अभाव हो जाता है। तदुपरान्त निर्बीजसमाधि सिद्ध हो जाती है।
यद्यपि दोनों प्रकार के असम्प्रज्ञातयोग से सर्ववृत्तिनिरोध हो जाता है, तथापि व्याख्याकारों ने मुमुक्षु के लिए 'भवप्रत्यय असम्प्रज्ञातयोग' को अनपादेय (हेय) तथा 'उपायप्रत्यय असम्प्रज्ञातयोग' को ग्राह्य (उपादेय) कहा है। क्योंकि भवप्रत्यय में चि छ समय तक निरुद्ध तो रहता है, कालान्तर में उसका
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१. (क) भवो जन्म तदेव प्रत्ययः कारणं यस्येति विग्रहः.....! - योगवार्तिक, पृ०६१
(ख) भवो जन्मैव प्रत्ययः कारणं यस्येति व्युत्पत्तेरित्यर्थः। - भावागणेशवृत्ति, पृ० २५ (क) भवः संसारः स एव प्रत्ययः कारणं यस्य सः भवप्रत्ययः। - भोजवृत्ति, पृ० २४ (ख) भवप्रत्ययः संसारः एव कारणं यस्य। -चन्द्रिका टीका, पृ०२६ भवप्रत्ययो विदेहप्रकृतिलयानाम् ।- पातञ्जलयोगसूत्र. १/१६ भूतेन्द्रियाणामन्यतममात्मत्वेन प्रतिपन्नास्तदुपासनया तद्वासनावासितान्तःकरणाः पिण्डपातानन्तरमिन्द्रियेषु भूतेषु या लीनाः संस्कारमात्रावशेषमनसः षाट्कौशिकशरीररहिता विदेहाः । ते हि स्वसंस्कारमात्रोपयोगेन चित्तेन कैवल्यपदमिवानुभवन्तः प्राप्नुवन्तो विदेहाः। - तत्त्ववैशारदी, पृ०५६-६० तथा प्रकृतिलयाश्चाव्यक्तमहदहंकार पञ्चतन्मात्रेष्वन्यतममात्मत्वेन प्रतिपन्नास्तदुपासनया तद्वासनावासितान्तःकरणाः पिण्डपातानन्तरमव्यक्तादीनामन्यतमे लीनाः। - तत्त्ववैशारदी, पृ०६० (क) विरामप्रत्ययाभ्यासपूर्वः संस्कारशेषोऽन्यः । - पातञ्जलयोगसूत्र, १/१८ .(ख) तुलना : गीता ६/४३-४४
श्रद्धावीर्यस्मृतिसमाधिप्रज्ञापूर्वक इतरेषाम् ।- पातञ्जलयोगसूत्र, १/२० ८. (क) उपायप्रत्ययो योगिनां भवति । - व्यासभाष्य पृ०६६
(ख) तत्र तयोर्मध्ये, उपायप्रत्ययो योगिनां मोक्षमाणानां भवति। ..... मुमुक्षुसम्बन्धं निषेधति। - तत्त्ववैशारदी, पृ० ५६
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