SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 79
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ योग का स्वरूप एवं भेद ऋतम्भराप्रज्ञा जन्य संस्कारों से अन्य सभी प्रकार के असमाधिकालिक अर्थात् लौकिक दशा वाले व्युत्थान संस्कार निरुद्ध हो जाते हैं।' परिणामस्वरूप उक्त प्रज्ञा के निर्मल प्रकाश में विवेकख्याति का उदय होता है। विवेकख्याति चित्त की वह सात्त्विक वृत्ति है, जिसमें साधक को प्रकृति और पुरुष के भेद-ज्ञान का साक्षात्कार होने लगता है । व्यासभाष्य के अनुसार 'सत्त्वपुरुषान्यताख्याति 'के साथ ही साधक को सर्वभावाधिष्ठातृत्व और सर्वज्ञातृत्व प्राप्त हो जाता है, जो ऋतम्भराप्रज्ञा से अभिन्न है । विवेकख्याति का ही उत्कृष्टतम रूप 'धर्ममेघसमाधि' है। विवेकख्याति में भी, विवेकख्याति से प्राप्त सर्वज्ञत्व एवं सर्वभावाधिष्ठातृत्वादि सिद्धियों के प्रति विरक्त योगी को निरन्तर विवेकख्याति का उदय होने से 'धर्ममेघसमाधि' होती है। 'धर्ममेघसमाधि' द्वारा समस्त क्लेशों तथा कर्मों से छुटकारा प्राप्त हो जाता है ।" मलावरण के हट जानें से प्राप्त असीमित ज्ञान के प्रकाश में कुछ भी अज्ञात नहीं रह जाता। 'धर्ममेघसमाधि' के उदित होने पर कृतार्थ हुए (चित्त रूप से अवस्थित ) सत्त्वादि गुणों के परिणाम का क्रम समाप्त हो जाता है। यह 'धर्ममेघसमाधि' सम्प्रज्ञातयोग की चरमावस्था है । (ख) असम्प्रज्ञातयोग उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि सम्प्रज्ञातयोग में चित्त की एकाग्रावस्था में सात्त्विक अक्लिष्टात्मक ध्येयाकार वृत्ति अवशिष्ट रहती है। चित्त की निरुद्धावस्था में उसका भी निरोध हो जाता है। इस अवस्था में किसी भी वस्तु का आलम्बन नहीं रहता । अतः इसे निर्बीज या असम्प्रज्ञातसमाधि कहते हैं । सम्प्रज्ञातसमाधि में चित्त को भ्रमित करने वाली असंख्य वृत्तियाँ निरुद्ध हो जाती है, फिर भी विवेकख्याति रूप ज्ञानवृत्ति बनी रहती है। विवेकख्याति से भी वैराग्य हो जाने पर इस ज्ञान स्वरूपा वृत्ति का भी निरोध हो जाता है।" पातञ्जलयोगसूत्र में इसे ही निर्बीजसमाधि कहा गया है। " असम्प्रज्ञातयोग के भेद योगसूत्र में असम्प्रज्ञातयोग के भी दो भेद स्वीकार किए गए हैं। १. १. २. ३. ४. भवप्रत्यय इस अवस्था में योगियों का चित्त पूर्वजन्म की योगसिद्धि के प्रभाव से जन्म से ही योग में प्रवृत्त होता है इसलिए इसे 'भवप्रत्यय' नाम दिया गया है । भव का अर्थ है जन्म, संसार और प्रत्यय का अर्थ है - कारण । व्याख्याकारों द्वारा 'भव' शब्द के भिन्न-भिन्न अर्थ ग्रहण किए गये हैं । वाचस्पति मिश्र ने 'भव' शब्द का अर्थ अविद्या किया है। उनके अनुसार अविद्यामूलक होने से जिस सर्ववृत्तिनिरोध रूप योग का कारण जन्म हो, वह 'भवप्रत्यय असम्प्रज्ञातयोग' है।" विज्ञानभिक्षु ने 'भव' शब्द का अर्थ जन्म करते हुए ५. ६. ७. ८. ६. १०. - Jain Education International 61 — समाधिप्रज्ञाप्रभवः संस्कारो व्युत्थानसंस्काराशयम् बाधते । - व्यासभाष्य, पृ० १५५ वही, पृ० १५५ प्रसंख्यानेऽप्यकुसीदस्य सर्वथा विवेकख्यातेर्धर्ममेघः समाधिः । - पातञ्जलयोगसूत्र, ४ / २६ ततः क्लेशकर्मनिवृत्तिः । - वही, ४ / ३० तदा. सर्वावरणमलापेतस्य ज्ञानस्यानन्त्याज्ज्ञेयमल्पम् । - वही, ४ / ३१. ततः कृतार्थानां परिणामक्रमसमाप्तिर्गुणानाम् । - वही, ४ / ३२ सर्ववृत्तिनिरोधेत्वसम्प्रज्ञातः समाधिः । - व्यासभाष्य, पृ० ३ तस्यापि निरोधे सर्वनिरोधान्निर्बीजः समाधिः । - पातञ्जलयोगसूत्र, १ / ५१ स खल्वयं द्विविधः उपायप्रत्ययो भवप्रत्यश्च । - व्यासभाष्य, पृ० ६५ भवन्ति जायन्तेऽस्यां जन्तवो इति भवोऽविद्या - तत्त्ववैशारदी, पृ० ५६ १. भवप्रत्यय और २ उपायप्रत्यय । For Private & Personal Use Only स खल्वयं भवः प्रत्ययः कारणं यस्य निरोधसमाधेः स भवप्रत्ययः । www.jainelibrary.org
SR No.001981
Book TitlePatanjalyoga evam Jainyoga ka Tulnatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAruna Anand
PublisherB L Institute of Indology
Publication Year2002
Total Pages350
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size25 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy