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योग का स्वरूप एवं भेद
व्युत्थान अवश्य होता है । परन्तु उपायप्रत्यय असम्प्रज्ञातयोग में उपाय यानि प्रज्ञा अर्थात् शुद्ध ज्ञान के उत्पन्न होने पर संस्कार क्रमशः दग्ध हो जाते हैं । अतः उसमें व्युत्थान की कोई आशंका नहीं रहती । वास्तव में इसी को कैवल्य का पूर्वास्वाद कहा जा सकता है।' कैवल्य की प्राप्ति ही योग का अन्तिम लक्ष्य है ।
आ. जैनयोग-मत
जैन आचार्यों ने 'योग' का एक व्यापक स्वरूप प्रतिपादित करते हुए साधना की भिन्न-भिन्न कोटियों को दृष्टि में रखकर, उनके भेद भी प्रतिपादित किये हैं, जो इसप्रकार हैं
(क) सर्वधर्म-व्यापारयोग
योग मोक्ष का हेतु है। अतः मोक्ष की प्राप्ति हेतु जिन-जिन साधनों को आत्मसात् किया जाता है, वे सब योग की श्रेणी में परिगणित किये गये हैं । वे सभी विशुद्ध धर्म व्यापार योग कहे गये हैं, जो आत्मा का मोक्ष से योजन कराते हैं, मोक्ष की ओर प्रवृत्त कराते हैं। सम्यग्दृष्टि साधक के सभी योग (कायादि व्यापार) जो संवर व निर्जरा के हेतु होते हुए मोक्ष साधक हैं, इस दृष्टि से वे भी 'योग' के रूप में प्रतिपादित हैं। इसप्रकार समस्त आत्मिक शक्तियों को पूर्णतः विकसित कराने वाली क्रिया 'योग' कही जा सकती है।
(ख) प्रणिधानादि पांच आशय (प्रकार)
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रागादि मल से पूर्ण विरति ही मुक्ति है। उक्त सर्वधर्म-व्यापार का लक्ष्य होता है • शुद्ध आत्मस्थिति ( मुक्ति, कैवल्य) की प्राप्ति, जो पापक्षय एवं पुण्यवृद्धि करते हुए क्रमशः चित्तशुद्धि के माध्यम से प्राप्त होती है । क्रमिक चित्तशुद्धि के विभिन्न सोपान शास्त्रों में वर्णित हैं। उक्त सोपानों को 'योग के प्रकार' भी कहा जा सकता है। आ० हरिभद्र के अनुसार उक्त सोपान पांच हैं प्रणिधान, प्रवृत्ति, विघ्नजय, सिद्धि, और विनियोग । उक्त पांच आशय क्रमशः उत्तरोत्तर प्राप्त होते हैं क्योंकि वे उत्तरोत्तर अधिकाधिक प्रकर्षशाली चित्तोपयोग अर्थात् मानस परिणामस्वरूप हैं। इनका संक्षिप्त वर्णन इस प्रकार है
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१. प्रणिधान (धार्मिक क्रियाओं के प्रति सावधानी )
सावधानीपूर्वक अपने से नीचे की कोटि वाले जीवों के प्रति द्वेष की अपेक्षा कृपाभाव रखना,
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भारतीय संस्कृति और साधना, पृ० ३८७, ३८८ योगविंशिका, गा० १
भिन्नग्रन्धेस्तु यत् प्रायो मोक्षे चित्तं भवे तनुः ।
तस्य तत्सर्व एवेह योगो योगो हि भावतः ।। - योगबिन्दु, २०३
पुष्टिः पुण्योपचयः शुद्धिः पापक्षयेण निर्मलता ।
अनुबंधिनि द्वयेऽस्मिन् क्रमेण मुक्तिः परा ज्ञेया ।। षोडशक, ३/४ (क) प्रणिधिप्रवृत्तिविघ्नजयसिद्धिविनियोगभेदतः प्रायः ।
धर्मज्ञैराख्यातः शुभाशयः पंचधाऽत्र विधौ ।। - वही, ३/६
(ख) द्वात्रिंशद्वात्रिंशिका, १०/१०
प्रणिधान प्रवृत्ति- विघ्नजय-सिद्धि-विनियोगानामुत्तरोत्तरभावात् । - ललितविस्तरा, पृ० ४१८
वही, पृ० ४२०
(क) प्रणिधानं तत्समये स्थितिमत्तदद्यः कृपानुगं चैव ।
निरवद्यवस्तु विषय परार्थनिष्पत्तिसारं च ।। षोडशक, ३/७ (ख) प्रणिधान क्रियानिष्ठमधोवृत्तिकृपानुगम् ।
परोपकारसारं च चित्तं पापविवर्जितम् ।। - द्वात्रिंशद्वात्रिंशिका, १०/११
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- आत्मोन्मुखी चेष्टा
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