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________________ 58 पातञ्जलयोग एवं जैनयोग का तुलनात्मक अध्ययन इस अवस्था में होने वाले ज्ञान को ऋतंभराप्रज्ञा भी कहते हैं क्योंकि इस अवस्था में साधक को सत्य का ज्ञान होता है। इसमें विषय के साक्षात्कार का क्रम स्थूल से सूक्ष्म की ओर होता है। स्थूलादि तत्त्वों के साक्षात्कार का क्रम निश्चित होने से संप्रज्ञातयोग कई अवस्थाओं में विभक्त हो जाता है। सम्प्रज्ञातयोग के भेद सम्प्रज्ञातयोग की चार अवस्थाएँ हैं - वितर्क, विचार, आनन्द तथा अस्मिता । तदनुसार सम्प्रज्ञातयोग (समाधि) के चार भेद स्वीकार किये गये हैं - वितर्कानुगतसम्प्रज्ञातयोग (समाधि). विचारानुगतसम्प्रज्ञातयोग (समाधि), आनन्दानुगतसम्प्रज्ञातयोग (समाधि) तथा अस्मितानुगतसम्प्रज्ञातयोग (समाधि)।' १. वितर्कानुगतसम्प्रज्ञातयोग __ स्थूल आलम्बन में चित्त को केन्द्रित करना वितर्कानुगतयोग है। वितकार्नुगतयोग में स्थूल पदार्थ विषयक प्रज्ञा (समापत्ति) उत्पन्न होती है, जो विकल्प से अनुविद्ध एवं अननुविद्ध होने के कारण दो प्रकार की होती है - सवितर्क एवं निर्वितर्क। (क) सवितर्कसम्प्रज्ञातयोग सम्प्रज्ञातयोग की सवितर्क अवस्था का प्रारम्भ शब्दमय चिन्तन से होता है। इसमें शब्द, अर्थ और ज्ञान रूप भिन्न-भिन्न पदार्थों की अनुविद्ध संकीर्ण अर्थात् अभेद रूप से प्रतीति होती है। समाधि के विषयभूत ग्राह्य स्थूल पदार्थों में शब्द, अर्थ और ज्ञान के विकल्पों से अनुविद्ध (संयुक्त) समापत्ति को सवितर्कसम्प्रज्ञातयोग कहते हैं। (ख) निर्वितर्कसम्प्रज्ञातयोग सवितर्कसम्प्रज्ञातयोग का निरन्तर अभ्यास करने से निर्वितर्कसम्प्रज्ञातयोग सिद्ध होता है। जब शब्द, अर्थ और ज्ञान के विकल्पों का अभाव हो जाता है, तब उस अवस्था को निर्वितर्कसम्प्रज्ञातयोग कहते हैं। महर्षि पतञ्जलि के शब्दों में, ‘स्मृति के परिशुद्ध हो जाने पर जब साधक को अपने स्वरूप के ज्ञान का अभाद सा होकर केवल अर्थ मात्र की ही प्रतीत होती है, तब उसे निर्वितर्कसम्प्रज्ञातयोग कहा जाता है।'६ २. विचारानुगतसम्प्रज्ञातयोग (समाधि) विचार का अर्थ है -'सूक्ष्म'। अतः विचारानुगतसम्प्रज्ञातयोग सूक्ष्मपदार्थ विषयक होता है। अर्थात् इस योग में सूक्ष्म पदार्थों का अपरोक्ष रूप में ज्ञान होता है। जिसप्रकार स्थूल ध्येय विषयक योग के दो भेद हैं, उसीप्रकार सूक्ष्म ध्येय विषयक (विचारानुगतसम्प्रज्ञात) योग भी देशकाल तथा निमित्त से अवच्छिन्न और अनवच्छिन्न ज्ञान होने के कारण सविचार और निर्विचार भेद से दो प्रकार का कहा गया है। सूक्ष्म पदार्थों १. पातञ्जलयोगसूत्र, १/४८ व्यासभाष्य, पृ० १५० वितर्कविचारानन्दास्मितारूपानुगमात् संप्रज्ञातः। - पातञ्जलयोगसूत्र, १/१७ तत्र शब्दार्थज्ञानविकल्पैः संकीर्णा सवितर्का समापत्तिः। - वही, १/४२ तत्र शब्दज्ञानाभ्यासभेदेन विकल्पिते स्थूले गवाद्यर्थे समाहितचित्तस्य योगिनः समाधिजन्यसाक्षात्कारो यथा कल्पितार्थमेव गृह्णाति तथा सा समाधिप्रज्ञा शब्दार्थज्ञानानां विकल्पैः संकीर्णाः ...... सवितर्का समापत्तिः । - मणिप्रभावृत्ति, पृ० ४६ स्मृतिपरिशुद्धौ स्वरूपशून्यमेवार्थमात्रनिर्भासा निर्वितर्का। - पातञ्जलयोगसूत्र, १/४३. सूक्ष्मो विचारः। - व्यासभाष्य, पृ० ५६. ८. एतयैव सविचारा निर्विचारा च सूक्ष्मविषया व्याख्याता । - पातञ्जलयोगसूत्र, १/४४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001981
Book TitlePatanjalyoga evam Jainyoga ka Tulnatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAruna Anand
PublisherB L Institute of Indology
Publication Year2002
Total Pages350
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size25 MB
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