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योग का स्वरूप एवं भेद
की मर्यादा सूक्ष्म प्रकृति पर्यन्त बताई गई है। अतः प्रकृति पर्यन्त किसी भी सूक्ष्म ध्येय विषयक योग (समाधि) को सविचार और निर्विचार के अन्तर्गत समझना चाहिये ।
(क) सविचारसम्प्रज्ञातयोग
सविचारसम्प्रज्ञातयोग में सूक्ष्मभूत पार्थिवादि परमाणुओं का तथा शब्दादि तन्मात्राओं का संकीर्ण रूप से साक्षात्कार होता है।' उक्त योग कार्यकारणभाव के विचार से युक्त होता है। भोजदेव के अनुसार देश, काल एवं निमित्त के ज्ञान से युक्त सूक्ष्म पदार्थविषयक उपर्युक्त साक्षात्कार सविकल्पसमाधि (सवितर्क) के समान ही शब्द, अर्थ एवं ज्ञान के विकल्प से युक्त होता है। '
(ख) निर्विचारसम्प्रज्ञातयोग
निर्विचारसम्प्रज्ञातयोग में सूक्ष्म पदार्थों का साक्षात्कार असंकीर्ण रूप से होता है। अर्थात् शब्द, अर्थ और ज्ञान के विकल्पों से शून्य हो जाने पर जब साधक को सूक्ष्म पदार्थों का देश, काल, और निमित्त (कार्यकारणभाव) के विचार से रहित अपरोक्ष ज्ञान होता है, उसे निर्विचारसम्प्रज्ञातयोग कहते हैं। संक्षेप में इस योग में सूक्ष्म पदार्थ का सार्वकालिक, सार्वदेशिक तथा सर्वधर्मयुक्त ज्ञान होता है।
३. आनन्दानुगतसम्प्रज्ञातयोग
विचारानुगतसम्प्रज्ञातयोग का निरन्तर अभ्यास करते रहने से साधक की एकाग्रता इतनी बढ़ जाती है कि वह समस्त विषयों सहित अहंकार का संशय, विपर्ययरहित ज्ञान प्राप्त कर लेता है। साधक की यह अवस्था विशेष आनन्दानुगतसम्प्रज्ञातयोग कहलाती है। अहंकार एकादश इन्द्रियों तथा तन्मात्राओं तक समस्त सूक्ष्म विषयों का उपादान कारण है। इसमें सत्त्वगुण की प्रधानता होती है। सत्त्वगुण सुख रूप होने के कारण, इस अहंकार को साक्षात्कार कराने वाली अवस्था है। विज्ञानभिक्षु के अनुसार, विचारानुगत ध्यानभूमि तक के समस्त विषयों का साक्षात्कार कर लेने के उपरान्त, राजस एवं तामस वृत्तियों का निरोध हो जाने के कारण सत्त्वगुण का उद्रेक होने से जो सुख विशेष उत्पन्न होता है, वही इस समाधि का आलम्बन अथवा विषय है। इस अवस्था में साधक को ऐसा अपूर्व आनन्दं प्राप्त होता है। कि उसे अन्य किसी वस्तु की अभिलाषा नहीं रहती।
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४. अस्मितानुगतसम्प्रज्ञातयोग
सम्प्रज्ञातयोग की अन्तिम अवस्था है- अस्मिता अस्मिता अहंकार का कारण है और उसकी अपेक्षा अधिक सूक्ष्म भी है। इसलिए यह त्रिगुणात्मक मूल प्रकृति का पुरुष के प्रकाश से प्रकाशित होने वाल प्रथम विषयपरिणाम है। इस अवस्था तक साधक का अस्मिता में आत्माध्यास बना रहता है और इसमें अहंकार रहित केवल 'अस्मि' वृत्ति रहती है । सूत्रकार ने द्रष्टा एवं दृश्य तादात्म्य को अस्मिता कहा है।७
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सूक्ष्मविषयत्वं चाऽऽलिंगपर्यवसानम् । - पातञ्जलयोगसूत्र, १/४५
तत्र भूतसूक्ष्मेष्वभिव्यक्तधर्मकेषु देशकालनिमित्तानुभवावच्छिन्नेषु या समापत्तिः सविचारेत्युच्यते । - व्यासभाष्य, पृ० १४१ शब्दार्थविकल्पसहितत्वेन देशकालधर्माद्यवच्छिन्नः सूक्ष्मोऽर्थः प्रतिभाति यस्यां सा सविचारा । - भोजवृत्ति, पृ० ५१
या पुनः सर्वथा - सर्वतः शान्तोदिताव्यपदेश्यधर्मानवच्छिन्नेषु सर्वधर्मानुपातिषु सर्वधर्मात्मकेषु समापतिः सा निर्विचारेत्युच्यते ।
- व्यासभाष्य, पृ० १४१
योगमनोविज्ञान, पृ० २४७-२४८
अत्रैवालम्बने यश्चित्तस्य विचारानुगतभूम्यारोहात्सत्त्वप्रकर्षेण जायमाने आह्लादाख्यसुखविशेष आभोगः साक्षात्कारो भवति स आनन्दविषयकत्वादानन्द इत्यर्थः । तेनानुगतो युक्तो निरोध आनन्दानुगतनामायोग इति भावः । - योगवार्तिक, पृ० ५६ दृग्दर्शनशक्त्योरेकात्मतेवास्मिता । पातञ्जलयोगसूत्र, २/६
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