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योग का स्वरूप एवं भेद
उपा० यशोविजय एक महान् तार्किक विद्वान् थे। अतः उन्होंने स्वसिद्धान्त-सम्मत योग-लक्षण का तो समर्थन किया ही, साथ ही पातञ्जलयोगसत्र के योग-लक्षण पर भी अपनी तार्किक दष्टि डाली तथा उस पर समुचित उहापोह किया। अपने 'द्वात्रिंशिवात्रिंशिका' नामक ग्रन्थ में उन्होंने पतञ्जलि के योग-लक्षण पर विचार करते हए उसमें कई दोष दिखलाये हैं। योगदर्शन सांख्यमतानुरूप पुरुष को कटस्थ नित्य मानता है, कूटस्थ नित्य पुरुष में निरोध रूप परिणमन कैसे सम्भव हो सकता है ? उपा० यशोविजय ने इस पर ध्यान आकृष्ट किया है। ___ संक्षेप में जैनाचार्यों द्वारा मान्य योग-लक्षण जैनेतर परम्पराओं के योग-लक्षणों से भिन्न प्रतीत होते हुए भी सक्ष्मदृष्टि से ऐक्य के परिलक्षक हैं। हरिभद्रसरि ने तो अपने सभी ग्रन्थों में स्पष्ट रूप से यह निर्देश किया हैं कि सभी शास्त्रों में भिन्न अर्थों में ग्रथित लक्षण तत्त्वतः एक ही लक्ष्य का प्रतिपादन करते हैं।
३. योग के भेद अ. पातञ्जलयोग-मत ___ योग, समाधि का पर्यायवाची शब्द है। योग (समाधि) सम्प्रज्ञात और असम्प्रज्ञात भेद से दो प्रकार का होता है। सम्प्रज्ञातसमाधि में समस्त चित्तवृत्तियों का निरोध नहीं होता जबकि असम्प्रज्ञातसमाधि में समस्त चित्तवृत्तियाँ निरुद्ध हो जाती हैं। परिणामस्वरूप योगी को आत्म-साक्षात्कार हो जाता है। ध्यातव्य है कि आत्म-साक्षात्कार का महत्वपूर्ण कार्य सम्प्रज्ञातसमाधि में ही प्रारम्भ हो जाता है और इस समाधि का कार्य निष्पन्न होने के पश्चात, उसमें भी वैराग्य होने से साधक असंप्रज्ञातसमाधि को प्राप्त कर लेते हैं। संप्रज्ञात को सबीजसमाधि और असंप्रज्ञात को निर्बीजसमाधि भी कहते हैं। इसप्रकार पतञ्जलि के मत में दोनों प्रकार की समाधि 'योग' हैं।
(क) सम्प्रज्ञातयोग ___ सम्प्रज्ञातयोग (समाधि) चित्त की वह अवस्था है जिसमें राजसिक एवं तामसिक वृत्तियों के निरुद्ध हो जाने से सात्त्विक वृत्ति का प्राधान्य रहता है। सत्त्वगुणप्रधान चित्त किसी विषय विशेष के साथ एकाकार वृत्ति धारण कर लेता है। परिणामस्वरूप चित्त स्वच्छ एवम् निर्मल हो जाता है। निर्मल एवं स्वच्छ चित्त से साधक को ध्येय विषय का संशय एवं विपर्यय से रहित यथार्थ ज्ञान प्राप्त होता है। जिस भावना विशेष से इस यथार्थ ज्ञान की प्राप्ति होती है उसे ही सम्प्रज्ञातसमाधि (योग) कहते हैं। यहाँ सम्प्रज्ञात शब्द ही यह संकेत करता है कि इसमें ध्येय पदार्थ का साक्षात्कार सम्यकरूप से होता है। इस अवस्था में
१. द्रष्टव्य : द्वात्रिंशदद्वात्रिंशिका, ११वां अध्ययन २. (क) अनेकयोगशास्त्रेभ्यः संक्षेपण समुदधृतः ।
दृष्टिभेदेन योगोऽयमात्मानुस्मृतये परः ।।- योगदृष्टिसमुच्चय, २०७. (ख) सर्वेषां योगशास्त्राणामविरोधेन तत्त्वतः ।।
सन्नीत्या स्थापकं चैव मध्यस्थांस्तद्विदः प्रति ।। - योगबिन्दु. २ भावागणेशवृत्ति, पृ० ४: मणिप्रभावृत्ति, पृ०२: नागेशभट्टवृत्ति पृ०४; योगसुधाकर, पृ०३ ४. एकाग्रे तु सत्वप्रधाने एकविषयस्थिते चित्ते रजस्तमोवृत्तिनिरोधः सात्विकवृत्तिविशेषसम्प्रज्ञातयोगो भवति।
- मणिप्रभावृत्ति, पृ०२ सम्यक संशयविपर्ययरहितत्वेन प्रज्ञायते प्रकर्षेण ज्ञायते भाव्यस्य रूपं सः संप्रज्ञातः समाधिभावना विशेषः।-भोजवृत्ति, पृ० १० (क) सम्यकप्रज्ञायत्त्वेन योगः सम्प्रज्ञातनामा भवति ।- योगवार्तिक. पृ०५५ (ख) सम्यकसंशयविपर्ययराहित्येन प्रज्ञाते प्रकर्षेण ज्ञायते भाव्यस्वरूपं येन स सम्प्रज्ञातसमाधिः भावनाविशेषः ।
- नागेशभवृत्ति, पृ० २१ (ग) सभ्यप्रज्ञायते येन भाव्यं वस्तु स सम्प्रज्ञातः समाधि - भावनाविशेषः । - योगसुधाकर, पृ० २३
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