________________
54
पातञ्जलयोग एवं जैनयोग का तुलनात्मक अध्ययन
आ० हेमचन्द्र ने 'योगशास्त्र' में मोक्ष को मुख्य पुरुषार्थ मानते हुए उसे योग का कारण बताया है और उसकी प्राप्ति के साधन को 'रत्नत्रय' के नाम से अभिहित किया है जो सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान एवं सम्यक्चारित्र रूप है और मोक्ष का प्रमुख साधन है। रत्नत्रय वास्तव में स्वयं आत्मा ही है, क्योंकि सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान एवं सम्यक्चारित्र-ये आत्मा के यथार्थ स्वरूप है, स्वाभाविक गुण है। इस द से आत्मा का आत्मा से योग (सम्बन्ध) ही 'योग' है। इसीलिए यह कथन युक्तिसंगत प्रतीत होता है कि मोह का क्षय कर योगी को जो आत्मदर्शन, आत्मज्ञान तथा शुद्धात्मस्वरूप का अनुभव होता है, वही उसका सम्यक् चारित्र है, वही उसका सम्यक् ज्ञान है, और वही उसका सम्यक् दर्शन है। इस प्रकार आ० हेमचन्द्र ने भी योग के संयोगार्थक 'योग' शब्द को ही स्वीकार किया है। __ उपा० यशोविजय ने अपने ज्ञानसार अष्टक, द्वात्रिंशद्द्वात्रिंशिका, पातञ्जलयोगसूत्रवृत्ति आदि योगपरक ग्रन्थों में हरिभद्रसूरि का ही अनुकरण किया है। उनके मत में भी 'योग' नाम की सार्थकता उसकी मोक्षयोजकता में ही निहित है। उन्होंने भी मोक्ष के हेतुभूत समस्त आचार-व्यवहार को 'योग' की संज्ञा दी
उपर्युक्त योग-लक्षण को अधिक व्यापक रूप में प्रयुक्त करते हुए समिति, गुप्ति आदि आचारों को भी 'योग' की श्रेणी में अन्तर्भूत किया है। जैन-परम्परा में जिन आचार-व्यवहारों के पालन पर अधिक जोर दिया गया है, उनमें लीन साधक के चारित्रिक विकास व संयम की सिद्धि हेतु पांच समितियों का तथा अशुभ प्रवृत्तियों से निवृत्ति के लिए तीन गुप्तियों का विधान किया गया है। समिति में शुभ प्रवृत्ति प्रधान है, गुप्ति में मन की एकाग्रता और निरोध मुख्य है। इसप्रकार समिति और गुप्ति संयम की वृद्धि और चेतना की शुद्धि कराने वाले व्यापार हैं और योग भी आत्मा को उसकी शुद्ध स्वरूपावस्था को प्राप्त कराने वाला मार्ग है। अतः समिति-गुप्ति रूप योग से आत्मा को सिद्धावस्था प्राप्त होती है। यही नहीं, उपा० यशोविजय ने पतञ्जलि के योग-लक्षण 'योगश्चित्तवृत्तिनिरोधः' में 'क्लिष्ट' पद का अध्याहार करके योग-लक्षण का
१. चतुवर्गेऽग्रणीर्मोक्षो, योगस्तस्य च कारणम् ।
ज्ञान-श्रद्धान-चारित्ररूपं रत्नत्रयं च सः ।। - योगशास्त्र, १/१५ (क) आत्मैव दर्शन-ज्ञान-चारित्राण्यथवा यतेः । - वही, ४/१. (ख) दसणणाणचरित्ताणि सेविदव्वाणि साहुणा णिच्चं ।
ताणि पुण जाण तिण्णिवि अप्पाणं चेव णिच्छयदो ।। - समयसार. १/१६ (क) मोक्खपहे अप्पाणं ठवेहि तं चेव झाहि तं चेय ।
तत्थेव विरह णिच्चं मा विरहरसु अण्णदव्येसु ।। - वही, १०/४१२ योजयत्यात्मनात्मानं स्वयं जन्मापवर्गयोः । - ज्ञानार्णव, २६/८१ आत्मानमात्मना वेत्ति मोहत्यागाद्य आत्मनि । तदेव तस्य चारित्रं तज्ज्ञानं तच्च दर्शनम् ।। - योगशास्त्र. ४/२ आत्माऽऽत्मन्येव यच्छुद्धं जानात्यात्मानमात्मना। सेयं रत्नत्रये ज्ञप्तिरुच्याचारकता मुनैः ।। - ज्ञानसार, १३/२ जानाति यः स्वयं स्वस्मिन स्वरूपरूपं गतभ्रमः ।
तदेव तस्य विज्ञानं तवृत्तं तच्च दर्शनम् ।। - ज्ञानार्णव, १८/२७ (क) मोक्षेण योजनादेव योगो पत्र निरुच्यते। - द्वात्रिंशद्वात्रिंशिका, १०/१ (ख) मोक्षेण योजनाद योगः सर्वेऽप्याचार इष्यते ।। - ज्ञानसार, २७/१ (क) यतः समितिगुप्तीणां प्रपंचो योग उत्तमः । - द्वात्रिंशद्वात्रिंशिका, १८/३०
(ख) समितिगुप्तिसाधारणं धर्मव्यापारत्वमेव योगत्वम् | - पातञ्जलयोगसूत्र १/२ पर यशोविजयवृत्ति ७. इनका विस्तृत वर्णन 'योग और आचार' नामक अध्याय में देखें। ८. सर्वशब्दाग्रहणेऽप्यत्तिल्लाभादव्याप्तिः संप्रज्ञात इति क्लिष्टचित्तवृत्तिनिरोधः योगः" इति लक्षणं सम्यग्......।
-पातञ्जलयोगसूत्र १/२ पर यशोविजयवृत्ति
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org