________________
योग का स्वरूप एवं भेद
आ० हरिभद्र के अनुसार 'योग' शब्द उन समस्त व्यापारों का वाचक है, जिनसे आत्मा का परमात्मा से या मुक्ति से सम्बन्ध संभव होता है। ऐसा प्रतीत होता है कि उनको 'योजयति इति योगः' अर्थात् जो सम्बन्ध कराने वाला होता है, वह योग है, यह व्युत्पत्ति स्वीकार्य थी।
हरिभद्र के योगबिन्दु, योगदृष्टिसमुच्चय, योगविंशिका एवं योगशतक नामक योगविषयक ग्रन्थों में योग को मोक्ष से योजन (संयोग) कराने वाला कहा गया है। उनके मत में योग वही है जो मोक्ष से जोडता है और इसप्रकार मोक्ष का हेतु है। मोक्ष की प्राप्ति हेतु जिन-जन साधनों का अभ्यास किया जाता है, वे सब योग की श्रेणी में परिगणनीय है। मोक्ष का प्रमुख कारण जैन आगमोक्त रत्नत्रय की साधना है। रत्नत्रय में तीन आवश्यक बातें समाविष्ट हैं - १. सम्यग्दर्शन (समीचीन श्रद्धा) २. सम्यग्ज्ञान और ३. सम्यक्चारित्र। इस रत्नत्रय की सहायक अनेक अवान्तर क्रियायें हैं। अतः रत्नत्रय और उनकी सहायक सभी धार्मिक क्रियाओं की 'योग' संज्ञा हो जाती है। यही कारण है कि आ० हरिभद्र ने उन सभी धर्मव्यापारों को 'योग' कहा है, जो आत्मा को मोक्ष से जोड़ते हैं अर्थात् मोक्ष की ओर ले जाते हैं। मोक्ष की विपरीत दिशा में ले जाने वाला या दूसरे शब्दों में कर्मबंधन से जोड़ने वाला, कोई भी व्यापार 'योग नहीं हो सकता।
आ० शभचन्द्र ने 'ज्ञानार्णव' में मोक्षप्राप्ति के साधन रूप में ध्यान को अधिक प्रमखता प्रदान करते हए 'योग' का ध्यान के रूप में आकलन किया है। उन्होंने रत्नत्रय को साक्षात् मोक्षमार्ग के रूप में स्वीकार करते हए. परमात्मस्वरूप को प्रकाशित करने वाली अध्यात्म-प्रवृत्ति को योग बतलाया है। इस प्रकार वे आ० हरिभद्र द्वारा प्रतिपादित सत्कर्मों की महत्ता का तो समर्थन करते हैं, परन्तु उन्होंने ध्यान को अपेक्षाकृत अधिक महत्ता प्रदान की है।
१. (क) मोक्षण योजनात् योगः । - योगबिन्दु, ३३
(ख) योजनाद योगः इत्युक्तो मोक्षेण मुनिसत्तमैः । - वही, २०१. (ग) मुक्खेण जोयणाओ जोगो । - योगविशिका, १ (घ) मोक्षयोजनभावेन......1-योगदष्टिसमुच्चय, ११ (ड) मोक्खेण जोयणाओ णिद्दिट्ठो जोगिनाहेहिं। - योगशतक, २ (च) एवं च तत्त्वसंसिद्धेर्योग एवं निबन्धनम्। - योगबिन्दु, ६४ (छ) एतच्च योगहेतुत्वाद् योगः इत्युचितं वचः। - वही, २०६ योगबिन्दु.३.४ (क) सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्गः । - तत्त्वार्थसूत्र, १/१ (ख) नाणं व दंसणं चेव, चरित्तं च तवो तहा ।
एस मग्गोत्ति पन्नत्तो, जिणेहिं वरदसिहं || - उत्तराध्ययनसूत्र, २८/२ (ग) उत्तराध्ययनसूत्र. २८/३५ मुक्खेण जोयणाओ जोगो, सव्योवि धम्मवावारो । परिसुद्धो विन्नेओ, ठाणाइगओ विसेसेणं ।। - योगविंशिका, १ नियमसार, १३७; तत्त्वार्थराजवार्तिक, ६/१२ पृ०५०५; तत्त्वार्थभाष्य, सिद्धसेनवृत्ति, ६/१३; मूलाचार, वसुनन्दि टीका, ७/१७; उत्तराध्ययनसूत्र बृहदृत्ति, ११/१४ मोक्षः कर्मक्षयादेव स सम्यग्ज्ञानजःस्मृतः । ध्यानबीजं मतं तद्धि तस्मात्तद्धितमात्मनः।। - ज्ञानार्णव, ३/१३ जन्मज्वरसमुद्भूतमहामूर्छार्तचक्षुषा । रत्नत्रयमयः साक्षान्मोक्षमार्गो न वीक्षितः ।। - वही, २८/६ (क) बाह्यात्मानमपास्यैवान्तरात्मानं ततस्त्यजेत् ।
प्रकाशयत्ययं योगः स्वरूप परमेष्ठिनः ।। - वही. २६/२४ (ख) एष योगः समासेन प्रदीपः परमात्मनः ।। - समाधितन्त्र, १७ (ग) तुलना - ध्यानेनात्मनि पश्यन्ति केचिदात्मानमात्मना। - गीता, १३/२४
*
७
॥
प्रकार
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org