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________________ पातञ्जलयोग एवं जैनयोग का तुलनात्मक अध्ययन प्रकार से 'योग' (कायादि प्रवृत्तियाँ) ही हैं, इसलिए संभव है कि 'ध्यान' व 'समाधि' आदि को भी 'योग' के रूप में स्वीकृत कर लिया गया हो। उत्तराध्ययन में वर्णित जोग (योग) शब्द संयम तथा समाधि' अर्थ का सूचक है । सूत्रकृतांग में प्रयुक्त 'जोगवं' (योगवान्) के 'योग' पद का 'संयम' अर्थ है । 'अज्झप्पयोग' (अध्यात्मयोग) शब्द धर्मध्यान के अर्थ में प्रयुक्त है। स्थानांग में 'जोगवाहिता' (योगवाहिता) शब्द का उल्लेख हुआ है जिसका अर्थ टीकाकार अभयदेवसूरि के अनुसार समाधि की निरन्तरता है आगमपरवर्ती जैनसाहित्य में भी ध्यान एवं समाधि' अर्थ में 'योग' शब्द का प्रयोग प्रचुरता से दृष्टिगोचर होता है। योग, समाधि, शुद्धोपयोग, सम्यक्प्रणिधान, ध्यान, चित्तैकाग्रता, चित्तनिरोध, धीरोध, स्वान्तनिग्रह, अन्तः संलीनताये सभी शब्द एकार्थवाचक माने गये हैं, जिससे यह ध्वनित होता है कि जैन- परम्परा में प्रयुक्त 'योग' शब्द समष्टि योग-साधना को व्यक्त करता था, जिसमें प्रत्याहार से समाधि तक के अंग समाहित थे क्योंकि ये योगसिद्धि (मोक्ष) के साक्षात् साधन हैं। यम, नियम, आसन, और प्राणायाम योगसिद्धि के साक्षात् साधन न होने के कारण बहिरंग साधन माने जाते हैं। परवर्ती जैन ग्रन्थों में योग शब्द संयोग (जुड़ने और जोड़ने ) अर्थ में भी प्रयुक्त हुआ है।" 52 १. २. ३. ४. ५. ७. ८. ६ वहणे वहमाणस्स कंतारं अइवत्तई । जोगे वहमाणस्स, संसारो अइवत्तई || उत्तराध्ययनसूत्र, २७/२ (क) इह जीवियं अणियमेत्ता पब्भट्ठा समाहिजोएहिं । ते कामभोगरसगिद्धा अववज्जन्ति आसुरे काए ।1- वही. ८/१४ । (ख) योगः समाधिः सोऽस्यास्ति इति योगवान् उत्तराध्ययनसूत्र बृहद्वृत्ति, शान्त्याचार्य, पृ० ३४३ (क) जययं विहराहि जोगवं अनुपाणा पंथा दुरुत्तरा । अणुसासणमेव पक्कने, वीरेहिं सम्मं पवेइयं । । - सूत्रकृतांगसूत्र, (प्रथमश्रुतस्कन्ध) २/१/११ (ख) (जोगवं) योगवान् इति संयमयोगवान् गुप्तित्तमितिगुप्तः इत्यर्थः । सूत्रकृतांगसूत्र शीलांक० टीका. (आचारांगसूत्रं सूत्रकृतांगसूत्रं च ) २/१/११, पृ० ३८ (ग) योगो नाम संयम एव, योगो यस्यास्तीति स भवति योगवान् । - सूत्रकृतांगचूर्णि, २/१/११ पृ० ५४. एत्थ वि भिक्खू अणुन्नए विणीए णामए दंते दविए वोसट्ठकाए संविधुणीय विरूवरूवे परिसहोवसग्गे अजझप्पयोगसुद्धादाणे, उवट्ठिते ठितप्पा संखाए परदत्तभोई भिक्खुत्ति वुच्चे । सूत्रकृतांगसूत्र, १६ / ३ (क) स्थानांगसूत्र, १० / ३३,३/८८ (ख) श्रुतोपधानकारित्वं समाधिस्थायिता वा तयेति स्थानांगसूत्र, अभयदेववृत्ति १२० पृ० ८० (ग) श्रुतोपधानकारितया योगेन वा समाधिना सर्वत्रानुत्सुकत्वलक्षणेन वहतीत्येवंशीलो योगवाही। वही, ५१४, पृ० ३४३. (क) योगो ध्यानम् । - आदिपुराण, ३८ / १७६ । (ख) शुभाशुभचिन्तानिरोधलक्षणपरमध्यानशब्दवाच्यं योगस्य समयसार, गा० ४/२७६, २७७ तात्पर्यवृति । (ग) साम्यमेव परं ध्यानम् ।- ज्ञानार्णव, २२/१३ आदिपुराण ३८ / १८१ सर्वार्थसिद्धि ६/ १२ / ६३२, पृ० २४८ तत्त्वार्थराजवार्तिक ६/१/१२, पृ० ५०५ ६/१२/८, पृ०५२२, तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक ६/१२ समाधितन्त्रटीका, गा. १७: प्रवचनसार, गा० २ / १०८ तात्पर्यवृत्ति । (क) योगो ध्यानं समाधिश्च धीरोधः स्वान्तनिग्रहः । अन्तः संलीनता चेति तत्पर्यायाः स्मृता बुधैः । । - आदिपुराण, २१ / १२ (ख) योगः समाधिः सम्यक प्रणिधानमित्यर्थः सर्वार्थसिद्धि ६/१२/६३२.५० २४८ (ग) साम्यं स्वास्थ्यं, समाधिश्च योगश्चेतोनिरोधनम् । (घ) (क) (ख) - शुद्धोपयोग इत्येते भवन्त्येकार्थवाचकाः ।। - पद्मनन्दि पंचविंशिका, ४/६ योगः चित्तैकाग्रनिरोधनम् 1 • तत्त्वानुशासन, गा० ६१ तपसा योजनं योगः । जैनलक्षणावली (भा. ३), पृ० ६४६ युज्यते इति योगः - आवश्यक चूर्णि, पृ० ६६३. । योजनं योगः सम्बन्धः इति यावत् । - तत्त्वार्थराजवार्तिक, ७/१३/४, पृ० ५४०. (घ) जोगो सम्बन्धो । - दशवैकालिकसूत्र ८/३ पर अगस्त्यसिंहकृत चूर्णि (ङ) जोगं च समणधम्मम्मि जुंजे अणलसो धुवं । दशवैकालिक सूत्र ८ / ४२ (घ) विवरीयामिणिवेसं परिचत्ता जोन्हकहिए तच्चेसु । जो जुजदि अप्पाणं णियभावो सो हवे जोगो ।। - नियमसार, १३६. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001981
Book TitlePatanjalyoga evam Jainyoga ka Tulnatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAruna Anand
PublisherB L Institute of Indology
Publication Year2002
Total Pages350
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size25 MB
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