SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 69
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ योग का स्वरूप एवं भेद दिये गये हैं। भोजदेव ने उस अवस्था को सम्प्रज्ञातसमाधि कहा है, जिसमें संशय और विपर्यय से रहित ध्येय वस्तु का सम्यक् ज्ञान होता है । किन्तु यह अवस्था असम्प्रज्ञात की अपेक्षा इसलिए निम्न मानी गई है, क्योंकि इसमें प्रकृति और पुरुष विषयक भेद की अनुभूति होती हैं और द्वैत बुद्धि बनी रहती है, जबकि असम्प्रज्ञातसमाधि में उसका भी निरोध हो जाता है। वहाँ किसी भी वस्तु का आलम्बन नहीं रहता और ध्याता, ध्यान व ध्येय तीनों एकाकार हो जाते हैं, सब वृत्तियों का निरोध हो जाता है। महर्षि पतञ्जलि ने 'चित्तवृत्तिनिरोध' इस लक्षण में सम्प्रज्ञात और असम्प्रज्ञात दोनों प्रकार की समाधियों का अन्तर्भाव किया है, जो लक्षण मात्र से स्पष्ट नहीं होता। वाचस्पतिमिश्र ने "क्लेशादिविरोधीचित्तवृत्तिनिरोध" कहकर उक्त योग- लक्षण में महत्त्वपूर्ण परिष्कार सूचित किया है। आ. जैनयोग-मत जैन - परम्परानुसार 'योग' एक विशिष्ट पारिभाषिक शब्द है, जिसका अर्थ है मन, वचन व काय की प्रवृत्ति | इस प्रवृत्ति के पुरोवर्ती आत्मपरिणामों को भी 'योग' कहा जाता है।' उक्त द्विविध 'योग' के कारण ही कर्मों का आस्रव होता है" और यदि कषाय भी हों तो वह आस्रव 'बन्ध' रूप में परिणत होकर दृढ़ हो जाता है।" योग दो प्रकार का होता है - शुभयोग एवं अशुभयोग। शुभयोग से पुण्य, एवं अशुभ योग से पाप का 'आस्रव' होता है। यह दोनों प्रकार का योग कर्मबन्ध का कारण है।' यहाँ संयोगार्थक 'युजिर् धातु का सांसारिक बन्धकारक अर्थ अभिप्रेत है। अतः मोक्ष प्राप्त करने के लिए योग का निरोध ( संवर) और पूर्वबद्धकर्मों का क्षय करना पड़ता है। " जैनेतर परम्पराओं तथा प्राचीन भारतीय साहित्य में 'योग' पद अध्यात्म-साधना के सन्दर्भ में प्रयुक्त हुआ है, और वह प्रमुखतः समाधि तथा उसकी सिद्धि में सहायक विविध ( यम, नियम) साधनाओं का सूचक है । प्राचीन जैनागमों में प्रमुखतया 'योग' शब्द आस्रव के हेतुभूत मन-वचन-काय की प्रवृत्ति आदि के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है, परन्तु साथ ही ध्यान, समाधि आदि विविध यौगिक साधनों के अर्थ में भी इसका प्रयोग हुआ । सम्भवतः जैनेतर परम्पराओं के प्रभाव से ऐसा हुआ हो। जैन चूंकि समन्वयवादी थे, इसलिए उन्होंने अपने पारिभाषिक अर्थ के अतिरिक्त इतर परम्पराओं में प्रचलित अर्थ में भी 'योग' शब्द का प्रयोग किया है। अथवा योग- परम्परा में प्रचलित यम, नियम, तप, स्वाध्याय, ईश्वरप्रणिधान आदि भी एक १. २. ३. ४. ५. ६. ७. ८. ६. १०. (क) योगो हि द्विविधः सम्प्रज्ञातोऽसम्प्रज्ञातश्च । - भावागणेशवृत्ति, (योगसूत्रम् ). पृ० ४. (ख) द्विविधो योगः सम्प्रज्ञातोऽसम्प्रज्ञातश्च । - नागोजीभट्टवृत्ति, (योगसूत्रम् ), पृ० ४ 51 (ग) तत्र योगो द्विविधः सम्प्रज्ञातोऽसम्प्रज्ञातश्चेति । - मणिप्रभावृत्ति, (योगसूत्रम्), पृ० २ (घ) युज् समाधौ इति धातोर्योगः समाधिः; .... तत्र समाधिर्द्विविधः सम्प्रज्ञातोऽसम्प्रज्ञातश्चेति । योगसुधाकर, पृ० ३ सम्यक् संशयविपर्ययरहितत्वेन प्रज्ञायते प्रकर्षेण ज्ञायते भाव्यस्य रूपं सः सम्प्रज्ञातः समाधिर्भावनाविशेषः । - भोजवृत्ति, पृ० २० सर्ववृत्तिनिरोधे त्वसंप्रज्ञातः समाधिः । - व्यासभाष्य, पृ० ३ क्लेशकर्माशयपरिपन्थित्वे सति चित्तवृत्तिनिरोधत्वं योगत्वम् । - तत्त्ववैशारदी, पृ० १० (क) तिविहे जोए पण्णत्ते तंजहा - मणजोए वइजोए कायजोए । - स्थानांगसूत्र, ३/१/१२४ (ख) कायवाङ्मनः कर्म योगः । - तत्त्वार्थसूत्र, ६/१ ध्यानशतक, हरिभद्रवृत्ति, गा० ३ पृ० ३ स्थानांगसूत्र, (स्थानांगसूत्रं समवायांगसूत्रं च) अभयदेववृत्ति, ३/१/१२४, पृ० ७१ प्राकृत पंचसंग्रह, १/५५ तत्त्वार्थसूत्र, ६/२ वही, ६/५ मिथ्यादर्शनाविरतिप्रमादकषाययोगाः बन्धहेतवः । - वही, ८ / १ बन्धहेत्वभावनिर्जराभ्याम्, कृत्स्नकर्मक्षयमोक्षः । - वही, १० / २, ३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001981
Book TitlePatanjalyoga evam Jainyoga ka Tulnatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAruna Anand
PublisherB L Institute of Indology
Publication Year2002
Total Pages350
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size25 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy