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________________ द्वितीय अध्याय योग का स्वरूप एवं भेद १. योग : व्युत्पत्ति एवं अर्थ ___ 'योग' शब्द का सामान्य अर्थ है जोड़ना या एकत्र करना। संस्कृत में 'योग' की व्युत्पत्ति 'युज' धातु से मानी गई है। पाणिनी के गणपाठ में युज् धातु तीन बार प्रयुक्त हुई है। तदनुसार रुधादिगण में पठित 'युज्' धातु का अर्थ है संयोग,' दिवादिगण में, उल्लिखित युज् धातु का अर्थ है समाधि, और चुरादिगण में पठित 'युज्' धातु का अर्थ है संयमन । इन तीनों अर्थों में वर्णित 'युज्' धातु में घञ् प्रत्यय जोड़ने से 'योग' शब्द व्युत्पन्न हुआ है। २. योग का स्वरूप अ. पातञ्जलयोग-मत ___ पातञ्जलयोगसूत्र में योग की व्युत्पत्ति 'युज् समाधौ' से स्वीकृत है। भाष्यकार व्यास के अनुसार योग और समाधि पर्यायवाची हैं। सूत्रकार पतञ्जलि ने भी सम्प्रज्ञात और असम्प्रज्ञात दोनों प्रकार के योग के लिए 'समाधि' पद का प्रयोग किया है। अन्य व्याख्याकारों ने भी पातञ्जलयोग में उल्लिखित 'योग' को समाध्यर्थक मानते हुए उक्त मत की पुष्टि की है। तत्त्ववैशारदीकार वाचस्पतिमिश्र एवं हरिहरानन्द आरण्य' ने तो स्पष्ट शब्दों में 'योग' के संयोग अर्थ का निषेध किया है। ___ महर्षि पतञ्जलि को 'योग' शब्द से 'परमसमाधि' अर्थ अभिप्रेत है। परमसमाधि रूप योग की स्थिति पर्णतः निरुद्ध होने के अनन्तर ही संभव होती है. इसलिए अन्य शब्दों में, 'चित्तवृत्तिनिरोध' को योग कहा गया है। इस परिभाषा के अनुसार पूर्ण निरोध तभी संभव होता है, जब वृत्तियों के साथ-साथ उनके संस्कारों का भी निरोध हो जाए। इस दृष्टि से एकाग्रावस्था में होने वाले योग को 'सम्प्रज्ञात' तथा निरुद्धावस्था में होने वाले योग को 'असम्प्रज्ञात' कहकर 'योग' के दो भेद कर +Mi "युजिर् योगे', सिद्धान्त कौमुदी, धातुक्रमसंख्या, १४४४ २. 'युज समाधौ', वही, धातुक्रमसंख्या. ११७७ युज संयमने, वही, धातुक्रमसंख्या १८०७ योगः समाधिः .........| - व्यासभाष्य (पातञ्जलयोगदर्शन). पृ०२ (क) ताः एव सबीजः समाधिः। - पातञ्जलयोगसूत्र, १/३६ (ख) तस्यापि निरोधे सर्वनिरोधान्निर्बीजः समाधिः। - वही, १/५१ (क) 'युज समाधौ', अनुशिष्यते व्याख्यायते। - भोजवृत्ति(योगसूत्रम्), पृ०१ (ख) युज समाधावित्यनुशासनतः प्रसिद्धो योगः समाधिः । - योगवार्तिक(पातञ्जलयोगदर्शनम्). पृ०६ (ग) 'युज समाधौ', इति धातोर्योगः समाधिः ।-योगसुधाकर(योगसूत्रम्), पृ०३ 'युज समाधौ' इत्यस्माद व्युत्पन्नः समाध्यर्थो न तु 'युजिर् योगे-इत्यस्मात्संयोगार्थ इत्यर्थः । - तत्त्ववैशारदी(पातञ्जलयोगदर्शनम्), पृ०३ ८. न च संयोगााद्यर्थकोऽयं योगः, 'युज समाधौ' इतिशाब्दिकाः। - भास्वती (पातञ्जलयोगदर्शनम् ), पृ०६ ६. योगश्चित्तवृत्तिनिरोधः । - पातञ्जलयोगसूत्र, १/२ www.jainelibrary.org Jain Education International For Private & Personal Use Only
SR No.001981
Book TitlePatanjalyoga evam Jainyoga ka Tulnatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAruna Anand
PublisherB L Institute of Indology
Publication Year2002
Total Pages350
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size25 MB
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