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________________ पातञ्जल एवं जैनयोग-साधना-पद्धति तथा सम्बन्धित साहित्य 49 मोक्ष विषयक सिद्धान्तों की भी विशद चर्चा है। आस्तिक दर्शनों के विपरीत इसमें अनुबन्ध चतुष्टय का प्रतिपादन नहीं है। वृत्तिकार ने उक्त वृत्ति के प्रथम पाद में योग-लक्षण, चित्तवृत्तियों के भेद, योग के उपायभूत अपर और परवैराग्य सम्प्रज्ञात और असम्प्रज्ञात योग, भवप्रत्यय, ईश्वर का स्वरूप, मैत्री आदि चार भावनाओं, समापत्ति के चार भेदों, ऋतम्भरा प्रज्ञा का स्वरूप; द्वितीय पाद में तप, ईश्वर-प्रणिधान, अविद्यादि पांच क्लेशों, उनकी प्रसुप्त आदि चार अवस्थाओं, कर्म, कर्मविपाक तथा विपाक सम्बन्धी नियमों, सृष्टिसंहारक्रम, अंहिसादि पांच यमों, शौच, इन्द्रियों की परमावश्यता आदि का जैनमान्यतानुसार स्वरूप वर्णन किया है। तृतीय पाद में कैवल्य, विवेकख्याति और सर्वज्ञ सम्बन्धी मुख्य सिद्धान्तों का, तथा चतुर्थ पाद में वस्तु के प्रत्येक धर्म की भावि, भूत और वर्तमान अवस्थाओं की जैन परम्परानुकूल व्याख्या की है। जैन दर्शन की भित्ति “स्याद्वाद” होने से सर्वत्र स्याद्वाद के सिद्धान्तों का प्रतिपादन करने का प्रयास दिखाई देता है। उपा० यशोविजय के उक्त ग्रथों में जो मध्यस्थता, गुणग्राहकता. सूक्ष्मसमन्वयशक्ति और स्पष्टवादिता दिखाई देती है, वह अन्य आचार्यों में अपेक्षाकृत कम मिलती है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001981
Book TitlePatanjalyoga evam Jainyoga ka Tulnatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAruna Anand
PublisherB L Institute of Indology
Publication Year2002
Total Pages350
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size25 MB
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