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________________ 48 पातञ्जलयोग एवं जैनयोग का तुलनात्मक अध्ययन श्लोक हैं । आठ श्लोकों द्वारा रचित प्रत्येक अष्टक में आत्मा के पृथक्-पृथक् गुणों के वर्णनपूर्वक प्रत्येक श्लोक में ज्ञान, वैराग्य और अध्यात्म की एक अद्वितीय अमृतरसधारा बहती दिखाई देती है। ज्ञानसार में मुख्यतया षड्द्रव्यों में से जीव द्रव्य का विवेचन है। विभावदशा में फँसी हुई आत्मा किस प्रकार कष्ट का अनुभव करती है और स्वभावदशा में अपने यथार्थ स्वरूप को प्राप्त कर किस प्रकार आनन्द का अनुभव करती है, इसका अतिसुन्दर वर्णन इसमें उपलब्ध होता है। यहाँ स्वानुभव एवं शास्त्राध्ययन के आधार पर योग और अध्यात्म दोनों ही दृष्टिकोणों से विषय का प्रतिपादन है। यह ग्रन्थ उपाध्यायजी के ज्ञान-समुद्र के एक बिन्दु के समान है। लघुकाय होते हुए भी यह सिन्धु के समान ज्ञाननिधि का आगार है। ग्रंथ प्रशस्ति के अनुसार यह ग्रंथ न तो बालबोध के कारण अपनी ही लार को दूध समझकर चाटने जैसा सरल है और न ही नीरस । अपितु यह तो न्यायमाला रूपी अमृत का वह प्रवाह है जिसके आस्वादन से मोह की ज्वाला शांत होती है तथा बुद्धि विशाल बनती है। बुद्धि और ज्ञान दोनों को मुख्यता प्रदान करते हुए कहा गया है कि बुद्धि द्वारा वाद-प्रतिवाद तो किए जा सकते हैं किन्तु तत्त्वज्ञान का अत नहीं पाया जा सकता। अतः तत्त्व के यथार्थ स्वरूप का ज्ञान प्राप्त करने के लिए ग्रन्थकार ने ज्ञानसार के बार-बार वाचन, मनन और चिन्तनपूर्वक स्वाध्याय करने की आवश्यकता पर जोर दिया है। मन्तव्य मतान्तर होने पर भी श्रीमद्भगवद्गीता के समान इसे जैन व जैनेतर दोनों परम्पराओं में आदर प्राप्त है। इसमें जैन दर्शन के मूलभूत सिद्धान्तों के समावेशपूर्वक वेदान्त, गीता और योगवाशिष्ठ में प्रयुक्त सच्चिदानन्द, पूर्णानन्द, चिन्मात्रविश्रान्ति, परब्रह्म धर्मसंन्यास, योगसंन्यास, निर्विकल्पत्याग, म, असंगक्रिया आदि विषयों की सैद्धान्तिक चर्चा की गई है। संक्षेप में यह एक सार्वपार्षद ग्रन्थ है। इसे अक्षय सुख का दाता और भव-बन्धन से मुक्ति दिलाने वाला भी कहा गया है। द्वात्रिंशद्वात्रिंशिका (संस्कृत) ___ इस रचना में ग्रन्थकार ने दान, देशना, मार्ग, जिनमहत्व, भक्ति, साधु सामग्र्य, धर्मव्यवस्था, वाद, कथा, योग-लक्षण, पातञ्जल-योगलक्षणविचार, पूर्वसेवा, मुक्त्यद्वेषप्राधान्य, अपुनर्बन्धक, सम्यग्दृष्टि, ईशानुग्रहविचार, दैवपुरुषकार, योगभेद, योगविवेक, योगावतार, मित्रा, तारादित्रय, कुतर्कग्रहनिवृत्ति, सदृष्टि, क्लेशहानोपाय, योगमाहात्म्य, भिक्षु, दीक्षा, विनय, केवलिभुक्तिव्यवस्थापन, मुक्ति, तथा सज्जनस्तुति आदि बत्तीस विषयों का यथार्थ स्वरूप बताकर उन्हें बत्तीस श्लोकों के विभागों में बांटा है। इसी कारण इसे "द्वात्रिंशद्वात्रिंशिका' कहा गया है। इस कृति में मुख्य रूप से पातञ्जलयोगसूत्र एवं हरिभद्रसूरिकृत योगग्रन्थों की सरल व्याख्या होने से यह विशेष उपयोगी है। पातञ्जलयोगसूत्रवृत्ति सांख्य दर्शन पर आधृत एवं योगप्रक्रिया का सांगोपांग निरूपण करने वाले पातञ्जलयोगसूत्र पर सबसे प्रामाणिक एवं महत्त्वपूर्ण कृति व्यासभाष्य है। इसके आधार पर उपा० यशोविजय ने टिप्पण रूप लघु सूत्रवृत्ति की रचना की है। यह योगसूत्रवृत्ति पातञ्जलयोगसूत्र के समस्त सूत्रों पर न होकर केवल चुने हुए २७ सूत्रों पर ही जैन सिद्धान्तों के अनुसार उनमें परस्पर साम्य-वैषम्य दर्शाते हुए रची गई है। अपने मत की पुष्टि के लिए वृत्तिकार ने आचारांगसूत्र, आवश्यक नियुक्ति, विशेषावश्यकभाष्य, सिद्धसेन दिवाकरकृत द्वात्रिंशद्वात्रिंशिका तथा हरिभद्रकृत योगबिन्दु एवं योगविंशिका के वाक्यों को भी उद्धृत किया है। त्ति का विषय आचार न होकर तत्त्वज्ञान है। इसकी भाषा साधारण संस्कृत न होकर विशिष्ट संस्कृत अर्थात् नव्यन्याय एवं दार्शनिक पारिभाषिक शब्दावली है। इसमें राजयोग, कर्माशय, आत्मा तथा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001981
Book TitlePatanjalyoga evam Jainyoga ka Tulnatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAruna Anand
PublisherB L Institute of Indology
Publication Year2002
Total Pages350
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size25 MB
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