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________________ पातञ्जल एवं जैनयोग-साधना-पद्धति तथा सम्बन्धित साहित्य इनके अतिरिक्त निम्नलिखित ग्रन्थ भी उपा० यशोविजयजी द्वारा रचित माने जाते हैं - १. तत्त्वविवेक २. स्याद्वादमंजूषा, ३. कूपदृष्टांतविशदीकरण (प्राकृत) (स्वोपज्ञ टीका सहित) अध्यात्मसार (संस्कृत) ___ सात प्रबन्धों (प्रकरणों) एवं ३१ अधिकारों में विभक्त उक्त ग्रंथ में कुल ६४६ श्लोक हैं। विविध धर्मशास्त्रों में यत्र-तत्र बिखरे हुए अध्यात्म के सभी विषय इस कति में उपलब्ध हैं। प्रथम प्रबन्ध में अध्यात्म की प्रशंसा, अध्यात्म का स्वरूप, दंभत्याग एवं भवस्वरूप इन चार विषयों का सविस्तार वर्णन किया गया है। दूसरे में वैराग्य संभव, वैराग्य के भेद और वैराग्य सम्बन्धी आवश्यक विषयों का स्पष्ट रीति से वर्णन किया है। तीसरे में ममता का त्याग, ममता, सदनुष्ठान और मनःशुद्धि का स्वरूप बताया गया है। चौथे में सम्यक्त्व, मिथ्यात्वत्याग और कदाग्रहत्याग आदि विषयों का विवेचन है। पाचवें में योग, ध्यान और ध्यान-स्तुति वर्णित है। छठे में आत्मविनिश्चय का वर्णन है। सातवें प्रबन्ध में जिनमत-स्तुति तथा अनुभवी सज्जन-स्तुति की चर्चा है। जैन श्वेताम्बर कान्फ्रेंस द्वारा प्रकाशित जैन ग्रन्थावली में मूलग्रन्थ का प्रमाण १३०० श्लोक बताया गया है। अध्यात्मोपनिषद् (संस्कृत) २३१ श्लोकों का यह ग्रन्थ चार अधिकारों में विभक्त हैं। इस में वैदिक, नैयायिक, सांख्य, मीमांसा, बौद्ध और जैनमत के समन्वयपूर्वक योगवाशिष्ठ तथा हरिभद्र के ग्रन्थों से उद्धरण लेकर स्वमत की पुष्टि की गई है। शास्त्रयोगशुद्धि नामक प्रथम अधिकार में अध्यात्म का स्वरूप, अध्यात्म के अधिकारी, मिथ्याग्रही तुच्छग्रही) जीवो की दशा, शास्त्र की सामथ्र्य, शास्त्र-परीक्षा की विधि, त्रिविध शूद्धि, एकान्तवादियों के मत का स्यावाद दृष्टिकोण से विवेचन, नयशुद्धि, श्रुतज्ञान, चिंताज्ञान और भावनाज्ञान का स्वरूप, धर्मवाद के अधिकारी आदि विषयों का स्पष्टीकरण, तथा बीच-बीच में अन्य आवश्यक प्रसंग भी सरस नीति से चर्चित हैं। ज्ञानयोगशुद्धि नामक द्वितीय अधिकार में प्रातिभज्ञान, आत्मज्ञानी मुनि, सच्चा ज्ञानी, ज्ञानी पुरुष की निर्लेपता, चित्तशुद्धि के साधन, ज्ञानयोग का व्यावहारिक व नैयायिक दृष्टि से स्वरूप, इन छ: विषयों की व्याख्या है। तीसरे, क्रियायोगशुद्धि अधिकार में क्रिया की उपयोगिता जानने के प्रसंग में किस क्रिया से भावशुद्धि हो सकती है, इसका विवेचन है तथा यह भी बताया गया है कि ज्ञानी पुरुष भी कर्म का नाश करने के लिए क्रिया की साधना अवश्य करता है। चतुर्थ साम्ययोगशुद्धि अधिकार में समता, गुणयुक्त जीव की स्थिति, समता के बिना सामायिक की असंभाव्यता, परमात्म-स्वरूप को जानने में समता का सहायक होना तथा समता से होने वाले लाभ की विस्तृत चर्चा है। इन विषयों की चर्चा में भरत, दमयंतऋषि, नमिराजऋषि, स्कन्दसूरि के शिष्य, मेतार्य, गजसुकुमाल, अर्णिकापुत्र, दृढ़प्रहारी, श्रीमरुदेव आदि के उदाहरण भी दिये गये हैं। ज्ञानसार (संस्कृत) यह एक उच्चकोटि का आध्यात्मिक ग्रन्थ है। उक्त ग्रन्थ ३२ अष्टकों में विभक्त है। इसमें कुल २५६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001981
Book TitlePatanjalyoga evam Jainyoga ka Tulnatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAruna Anand
PublisherB L Institute of Indology
Publication Year2002
Total Pages350
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size25 MB
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