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योग का स्वरूप एवं भेद
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परिष्कार भी किया है। उनका यह योग-लक्षण अतिव्याप्ति और अव्याप्ति दोनों दोषों से रहित है और वाचस्पति मिश्र के योग-लक्षण' से साम्य रखता है।
इसप्रकार स्पष्ट है कि आ० हरिभद्रादि जैनाचार्यों तथा योगसूत्रकार पतञ्जलि दोनों को 'योग' अध्यात्म अर्थ में अभीष्ट है। महर्षि पतञ्जलि ने कहीं भी स्पष्टः न तो संयोगार्थक योग का निषेध किया है और न ही समाध्यर्थक योग को ग्रहण किया है। परन्तु उनके योगलक्षण 'योगश्चित्तवृत्तिनिरोधः' से व्यास आदि सभी व्याख्याकारों ने समाध्यर्थक योग को ही स्वीकार किया है। जैनाचार्यों ने 'युजिर् योगे' से योग की व्युत्पत्ति मानकर संयोगार्थक योग शब्द को स्वीकार किया है, जबकि पातञ्जलयोगसूत्रकार एवं उसके व्याख्याकारों ने 'यूजिर योगे' की अपेक्षा 'युज समाधौ' से योग की निष्पन्नता मानी है। अतः सामान्यतः आलोचकों की दृष्टि में जैनाचार्यों और पातञ्जलयोगसूत्र के व्याख्याताओं की दृष्टि में अन्तर स्पष्ट हो जाता है।
यहाँ यह ध्यातव्य है कि 'समाध्यर्थक योग' साध्य का और ‘संयोगार्थक योग' साधन का द्योतक है। जबकि योगसूत्र का समग्रतः अनुशीलन करने पर ऐसा प्रतीत होता है कि महर्षि पतञ्जलि को 'योग' शब्द से साधन एवं साध्य दोनों ग्राह्य थे। यम, नियम आदि आठ योगांगों में समाधि (चरम अवस्था) जहाँ साध्य है, वहाँ समाधि के पूर्ववर्ती यम, नियम आदि तथा तप, स्वाध्याय व ईश्वरप्रणिधान रूप क्रियायोग साधन हैं। इस विवेचन के द्वारा पतञ्जलि यह संकेतित करना चाहते हैं कि अष्टांगयोग एवं क्रियायोग योग (साध्य) भी हैं और योग के साधन भी। इस प्रकार योगसूत्रकार 'योग' शब्द को साधन एवं साध्य दोनों रूपों में स्वीकार करते हैं।
जैनाचार्यों की व्यापक/समन्वितदृष्टि ___ आ० हरिभद्र आदि जैनाचार्यों ने संयोगार्थक युज् धातु से निष्पन्न 'योग' शब्द को ही प्रयुक्त किया है और परमात्मतत्त्व की प्राप्ति में जो भी साधन हैं, उन सबका ग्रहण उन्हें 'योग' शब्द से अभिप्रेत है। अतः उनके द्वारा व्यवहत 'योग' शब्द में समाधि अर्थ भी स्वतः ही समाहित हो जाता है। आo हरिभद्र द्वारा वर्णित उक्त 'योग-लक्षण' ही अन्य परवर्ती जैनाचार्यों के लिए स्वीकार्य है।
यहाँ यह ध्यातव्य है कि आ० हरिभद्र के समय में योग की कई साधन प्रणालियाँ प्रचलित थीं, इसलिए आ० हरिभद्र को योग के साधन पक्ष पर अधिक जोर देना अभीष्ट था। इसके अतिरिक्त योग-याज्ञवल्क्य,२ योगशिखोपनिषद् तथा हठयोग के प्रतिपादक अन्य ग्रन्थों में भी योग के संयोग को स्वीकार करके उसके साधन पक्ष को सचित किया गया है। अतः यह भी संभव है कि हरिभद्रसरि पर उनका भी प्रभाव पडा हो और उन्होंने 'हठयोग' के संयोग अर्थ (साधन-पक्ष) तथा पतञ्जलि के समाधि अर्थ (साध्य-पक्ष) दोनों को अपने 'मोक्ष-प्रापक-धर्मव्यापार' में समन्वित करने की दृष्टि से योग का व्यापक लक्षण प्रस्तुत किया हो। __आ० शुभचन्द्र एवं हेमचन्द्र हठयोग एवं तन्त्रयोग से विशेष रूप से प्रभावित थे। उन्होंने भी साधन-पक्ष पर जोर देकर योग के संयोग-अर्थ को ही स्वीकार किया है। परन्तु जैनाचार्य होने के कारण उन्होंने जैनधर्म में प्रतिपादित रत्नत्रय एवं ध्यान-साधना पर अधिक बल दिया है।
१. क्लेशकर्मविपाकाशयपरिपन्था चित्तवृत्तिनिरोधः । -तत्त्ववैशारदी पृ० १०
संयोगो योग इत्युक्तो जीवात्म-परमात्मनोः। - योगयाज्ञवल्कय, २/४४ योऽपानप्राणयोरैक्यं स्वरजो रेतसोस्तथा । सूर्याचन्द्रसमोर्योगो जीवात्म-परमात्मनोः ।। एवन्तु द्वन्द्वजालस्य संयोगो योग उच्चते ।। - योगशिखोपनिषद (उपनिषत्संग्रह). १/६८
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