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पातञ्जल एवं जैनयोग-साधना-पद्धति तथा सम्बन्धित साहित्य
रही होगी, क्योंकि आठ वर्ष से कम आयु वाले को दीक्षा देने का नियम नहीं है। अतः उनके काल की पूर्वसीमा (ई० १५८८) सिद्ध होती है।
उपा० यशोविजिय के ग्रन्थों में उनके पूर्ववर्ती आ० हेमचन्द्र' (१२ वीं श०), धर्मभूषण (१५ वीं श०), तथा दधीतिकार (१६वीं श०) का उल्लेख मिलता है, इससे भी उनके उक्त काल में होने की पुष्टि होती है। इस प्रकार उपा० यशोविजय जी का जीवन काल सामान्यतः ई० १५६८ और ई० १६८८ के मध्य निर्धारित किया जा सकता है। इस संदर्भ में कुछ अन्य प्रमाण भी हैं -
१. जैन साहित्य में यशोविजय के समकालिक "आनन्दघन' नामक जैन कवि का उल्लेख हुआ है। कहा जाता है कि आनन्दघन के व्यक्तित्व से प्रभावित होकर यशोविजय ने उनकी प्रशंसा में "आनन्दघन
दी नामक हिन्दी ग्रन्थ की रचना की। आनन्दघन का समय वि० सं० १६७० से १६८० तक (ई० १६१३-१६२३) माना जाता है।
२. जैन ग्रन्थों में यशोविजय के समकालिक एक अन्य विद्वान विनयविजय गणि का वर्णन भी मिलता है। दोनों में परस्पर घनिष्ट मित्रता थी। कहा जाता है कि दोनों विद्वानों ने काशी में विद्याभ्यास साथ-साथ किया था और वहीं रहते हुए उन्होंने एक ही रात में १२०० श्लोक प्रमाण का ग्रन्थ कण्ठस्थ किया था। सं १७३८ (१६८१ ई०) में विनयविजय के द्वारा रांदेर गांव में चातुर्मास किए जाने की सूचना मिलती है। कहा जाता है कि इस चातुर्मास में उन्होंने "श्रीपालराजनो रास नामक ग्रन्थ की रचना का कार्य प्रारम्भ किया था, जिसे वे पूरा न कर सके, क्योंकि ग्रन्थ पूर्ण होने से पूर्व ही उनका देहावसान हो गया था। इससे पूर्व जब उनका स्वास्थ्य खराब रहने लगा तो उन्होंने यशोविजय को बुलाकर उक्त ग्रन्थ को पूरा करने का वचन ले लिया और यशोविजय ने इस वचन को निभाने के लिए ग्रन्थ के शेष भाग को शीघ्र ही पूरा कर दिया। विनयविजय के उक्त ग्रन्थ में उपलब्ध वर्णनशैली की भिन्नता से भी इस बात की पुष्टि होती है कि यह किसी एक ग्रन्थकार की रचना न होकर दो ग्रन्थकारों द्वारा रचित कृति है। ३. एक अन्य विवरण के अनुसार यशोविजय द्वारा मानविजयकृत "धर्मसंग्रह' ग्रंथ के परिवर्धन हेतु उस
पण लिखे जाने की सचना भी मिलती है। कहा जाता है कि उपा० यशोविजय ने मानविजय के उक्त पद्यबद्ध ग्रंथ को गद्यबद्ध कर पाठकों के लिए सरल बनाया है। मानविजय ने उसकी रचना १६८१ ई० में की थी। अतः स्पष्ट है कि उपा० यशोविजय जी १६८० ई० में विद्यमान थे।
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इत्थं च चाज्ञाननिवतर्कत्वेन तर्कस्य प्रामाण्यं धर्मभूषणोक्तं सत्यमेव। - जैनतर्कभाषा, प्रमाण परिच्छेद, पृ० ११ यत्तुपृथक्चमन्योन्याभाव एव इत्यामिदधे दीधितिकृता तन्न। - स्याद्वादरहस्य, पृ०४ वाचा श्रीहेमसूरोर्विवृत्तिमतिरसोल्लासभाजां तनोमि ।- वही, पृ०४ जैनसाहित्यनो संक्षिप्त इतिहास, पाद टिप्पण, ५२७ (क) जैनस्तोत्रसन्दोह, प्रथम भाग, प्रस्तावना पृ०६१ (ख) श्रीशांतसुधारस, विनयविजय गणि, प्रस्तावना, भावनगर वी०नि० सं० २४६२, पृ०३२ संयत सतर अडत्रीसा वरपे, रही रांदेर चोमासे जी। - श्रीपालराजनोरास, सरलपुर, अहमदावाद, खंड ४, पद्य ६ शातसुधारस, प्रस्तावना, पृ०३२. प्रणम्य विश्वेश्वरवीरदेवं, विश्वातिशायिप्रथितप्रभावम् । शास्त्रानुसृत्या किल धर्मसंग्रह, सुखावबुद्ध्यै विवृणोमि लेशतः ।। - धर्मसंग्रह, पूर्व भाग, मानविजय, यशोविजयकृत टिप्पण, श्लो०१ (क) जैनसाहित्यनो संक्षिप्त इतिहास, पाद टिप्पण ५२७ (ख) In A.D. 1681 Manavijaya wrote a Dharma Samgraha in Sanskrit verses apparently designed to serve us a vehicle for the comprehensive prose commentry of Yasovijaya.
- R. Williams, Jaina yoga, p. 18.
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