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पातञ्जलयोग एवं जैनयोग का तुलनात्मक अध्ययन
४. कहा जाता है कि वि० सं० १७१८ (१६६१ ई० ) में यशोविजय ने अहमदाबाद में औरंगजेब के महाबतखाँ नामक गुजरात के सूबेदार के समक्ष १८ अवधान किये थे।' औरंगजेब का समय १६५८ ई० से १७०७ ई० के बीच माना जाता है। अतः यशोविजय को भी इस समय होना चाहिये।
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५. उपा० यशोविजय के कुछ ग्रन्थों की प्रशस्ति में अकबर ( १५२६ - १५०७ ई०) के समकालीन हीरविजयसूरि का उल्लेख मिलता है। कहा जाता है कि अकबर ने वि०सं० १६४१ (ई० १५८४) में हीरविजयसूरि को जगद्गुरु की उपाधि से अलंकृत किया था। जगद्गुरु आ० श्रीहीरविजयसूरि के पट्ट प्रभावक आ० श्री विजयसेनसूरि थे। उनके स्वर्गारोहण के पश्चात् आ० श्री विजयदेवसूरि उनके पट्ट पर आसीन हुए। हीरविजय के जीवन, उनके धार्मिक कार्यों तथा अकबर बादशाह से उनका सम्पर्क आदि बातों का विस्तृत विवरण तपागच्छीय सिंह विमलगणि के शिष्य देवगणिकृत "हीरसौभाग्यम्" महाकाव्य में उपलब्ध होता है ।" इस काव्य की रचना हीरविजयसूरि के समय में ही हो गई थी, परन्तु इसकी समाप्ति विजयदेवसूरि के पट्टासीन काल में ही हो सकी। इसलिए इस काव्य की रचना सं० १६७२ से १६८५ (ई० १६१५ - १६२८) के बीच सम्पन्न हुई मानी जाती है।
यशोविजयजी के गुरु नयविजयजी हीरविजयसूरि से तृतीय थे। तदनुसार नयविजयजी अवश्य ही १६ वें शती के उत्तरार्ध में हुए होंगे।" यशोविजयजी का समय नयविजय जी से कुछ समय पश्चात् माना जा सकता है। उनकी दीक्षा विजयदेवसूरि द्वारा वि० सं० १६८८ ( ई० १६३१) में सम्पन्न हुई थी । उपर्युक्त प्रमाणों के आधार पर यह सिद्ध होता है कि उपा० यशोविजय १६वीं शती से पहले नहीं हुए, और १८ वीं के प्रारम्भ में वे निश्चय से जीवित थे। इस प्रकार उनका जीवनकाल वि० सं० १६४५ से १७४५ (ई० १५६८ - १६८८) तक माना जा सकता है।
जीवन परिचय
गुजरात प्रदेश में "कलोल" के निकट "कनोडु' नामक गांव में "नारायण" नामक एक जैन व्यापारी थे, जिनकी पत्नी सौभागदे ने दो पुत्ररत्नों को जन्म दिया, जिनमें से एक का नाम जसवन्त कुमार और दूसरे का पद्मसिंह था। जसवन्त की माता बड़े धार्मिक विचारों वाली थी और प्रतिदिन देवदर्शन के लिए मन्दिर जाया करती थी, तथा जसवन्त को भी साथ ले जाती थी। माता के संस्कारों के प्रभाव से छोटी आयु में ही बालक जसवन्त की धर्म के प्रति प्रगाढ़ रुचि उत्पन्न हो गई। पूर्वकालीन संस्कारों के कारण उसकी बुद्धि तथा प्रतिभा कुछ अद्भुत थी ।
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इन्द्रचन्द्र शास्त्री, जैनतर्कभाषा, प्रस्तावना, पृ० २: सुजसवेलीभास, ढाल ३, पद्य ६.
E. Lethbridge History of India, p. 129
श्रीमदकब्बर सुरत्राणप्रदत्त जगद्गुरुविरुदधारकभट्टारक श्री हीरविजयसूरीश्वरशिष्यमुख्य महोपाध्याय श्रीयशोविजयगणिना संदृब्धमिदम् । - अष्टसहस्रीतात्पर्यविवरणम् ग्रन्थप्रशस्ति ।
गुणश्रेणीमणीसिन्धोः श्रीहीरविजयप्रभोः ।
जगद्गुरुरिदं तेन विरुदं प्रददे तदा ।।
हीरसौभाग्यम्, १४/२०५ श्रीसूरिहीरविजये भजति द्युलोकमभ्युद्गते विजयसेनगणावनीन्द्रे ।
प्रीतिं जना दधति शीतरुचौ प्रयाते, क्षेत्रान्तरं समुदितेऽंशुमतीव कोकाः ।। - वही, १७ / २०८
तत्पट्टोदयभूधरभास्वान्श्रीविजयदेवसूरीन्द्रः ।
भजते तपगणराज्यश्रियमुर्वीसार्वभौम इव ।। - वही, १७ / २०६
ग्रन्थनिर्माणसमयस्तु वर्णनीयस्य हीरविजयगणेर्मरणस्य १६५२ विक्रमसंवत्सरे (१५६५ ई०) भाद्रपदशुक्लैकादश्यां वर्णितत्वेन षोडशशतकादुपरितन एव संभाव्यते । - • वही, भूमिका, पं० शिवदत्तकाशीनाथ
श्रीमद्यशोविजयस्मृतिग्रन्थ, पृ० २१ जम्बूस्वामीरास प्रस्तावना, पृ० २ अकबर और जैनधर्म, पृ० ८-११
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