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ई. उपाध्याय यशोविजय
• जन्मकाल : दुर्भाग्य का विषय है कि अनेक संस्कृत कवियों की भाँति केवल यशः शरीर से अमर रहने वाले मूर्धन्य विद्वान् उपा० यशोविजय के सम्बन्ध में हमारी जानकारी नगण्य है। केवल उनकी कृतियों के अध्ययन, ऐतिहासिक वस्त्रपट, तथा प्रशस्तियों आदि के आधार पर उनके समय एवं जीवन के संबंध में अनुमान लगाया जा सकता है। कुछ प्रमुख विद्वानों ने उनके समय के संबंध में मतभेद प्रकट किया है । उनके अनुसार यशोविजय का समय निम्नलिखित है
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१.
२.
३.
४.
१. ई. १६०८ - १६६८
२.
ई. १६२३ - १६८८
ई. १६२४ - १६८८
ई. १६३८ - १६८८
१७ वीं शती का उत्तरार्ध या १८वीं का पूर्वार्ध १८वीं शती
३.
४.
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६.
८.
६.
१०.
पातञ्जलयोग एवं जैनयोग का तुलनात्मक अध्ययन
उपर्युक्त विवरण से उपा० यशोविजय के समय की उत्तरसीमा के संबंध में विद्वानों में मतैक्य दृष्टिकोण होता है। केवल पूर्वसीमा के सम्बन्ध में विद्वानों के पृथक्-पृथक् विचार मिलते हैं।
उपा० यशोविजय के समकालिक कान्तिविजय द्वारा रचित सुजसवेलीभास के अनुसार डभोई नामक गांव में वि० सं० १७४३ ( ई० १६८६) में उनका स्वर्गवास हुआ था। वहीं वि० सं० १७४५ (१६८८ ई०) में प्रतिष्ठित की गई उनकी पादुका विद्यमान है। एक अन्य स्रोत के अनुसार उनका स्वर्गवास वि० सं० १७४५ ( ई० १६८८) में हुआ, ऐसा ज्ञात होता है। इसलिए उनके समय की उत्तरसीमा १७वीं शती का अन्तिम चरण ही सिद्ध होती है।
वि० सं० १६६३ (ई० १६०६) में यशोविजय जी के गुरु श्रीनयविजय जी द्वारा वस्त्रपट्ट का चित्र बनाया गया था जो आज तक संभाल कर रखा गया है। उसकी पुष्पिका के अन्त में लिखा है कि "नयविजय जी ने विजयदेवसूरी के समय में कर्णसागर नामक गाँव में रहकर सं० १६६३ ( ई० १६०६) में अपने शिष्य जयविजय जी के लिए यह पट्ट लिखने का प्रयास किया है। पुष्पिका में श्रीनयविजय जी ने स्वयं को गणी एवं पंन्यास लिखा है। गणी व पंन्यास जैन श्रमण संघ में विशिष्ट पद माने जाते हैं। उक्त दोनों पद उन्होंने यशोविजय जी को दे दिये थे, ऐसा उल्लेख भी प्राप्त होता है।"
वस्त्रपट्ट से प्रमाणित होता है कि वि० सं० १६६३ (१६०६ ई०) में उपा० यशोविजय को "गणी" पद प्राप्त था । यह सामान्य नियम है कि दीक्षा के १० वर्ष पश्चात् गणी पद की प्राप्ति होती है।" तदनुसार उनकी दीक्षा वि० सं० १६५३ ( ई० १५६६) में हुई होगी। दीक्षा के समय उनकी आयु कम से कम आठ वर्ष की
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश, भा० ३, पृ० ३७८
५. सुखलाल संघवी, जैनतर्कभाषा, प्रस्तावना, पृ० १
६.
७.
S.C. Vidyabhushan, A History of India Logic, p. 217.
D. N. Bhargava, Jain Tarkabhasa, Introduction, p. 18
R. Williams, Jaina Yoga, p.16
हरिप्राद गजानन शुक्ल, गुर्जर जैन कवियों की हिन्दी साहित्य को देन
द्रष्टव्य: सुजसवेली भास, ढाल ४ पृ० ५
जैनस्तोत्रसन्दोह, प्रथम भाग प्रस्तावना
जम्बूस्वामीरास प्रस्तावना, पृ० ३
वही
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एस. सी. विद्याभूषण' डॉ. दयानन्द भार्गव आर. विलियम्स जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश* पं० सुखलाल संघवी *
डा. हरिप्रसाद गजानन शुक्ल
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