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________________ पातञ्जल एवं जैनयोग-साधना-पद्धति तथा सम्बन्धित साहित्य कुमारपाल को राज्य पद प्राप्त हो गया। प्रतिज्ञानुसार कुमारपाल जो कि शैव था, हेमचन्द्राचार्य द्वारा जैन बना दिया गया। इस परिवर्तन के पश्चात् (११५६ ई० में) कुमारपाल ने गुजरात को आदर्श राज्य बनाने का प्रयत्न किया। हेमचन्द्र की अधिकांश साहित्यरचना जो सिद्धराज के राज्यकाल में ही हो चुकी थी, कुमारपाल के समय में प्रसिद्धि को प्राप्त हो गई। कुमारपाल के शासन में उन्होंने जो रचनाएँ कीं, वे अधिकतर धार्मिक थीं। योगशास्त्र, वीतरागस्तुति तथा त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित आदि ग्रन्थों की रचना उन्होंने कुमारपाल के आग्रह से ही की थी। __ऐसा माना जाता है कि आ० हेमचन्द्र ने समय-समय पर राजा कुमारपाल को धर्मप्ररेणा दी और धर्म-विरुद्ध मार्ग पर जाने से बचाया। आचार्य के विपुल साहित्य-सर्जन से प्रभावित होकर राजा कुमारपाल और तत्कालीन अन्य विद्वानों ने उन्हें 'कलिकालसर्वज्ञ' की उपाधि से विभूषित किया। पीटर्सन आदि पाश्चात्य विद्वानों ने तो हेमचन्द्र को 'OCEAN OF KNOWLEDGE' (ज्ञान का महासागर) की उपाधि से अलंकृत किया, जो यथार्थ एवं सत्य है। कहा जाता है कि हेमचन्द्र ने अपने जीवनकाल में लगभग डेढ़ लाख लोगों अर्थात् तैंतीस हजार कुटुम्बों को जैन-धर्मावलम्बी बनाया। देहावसान ___ अन्त में, चौरासी वर्ष की आयु में सतत् साहित्य सृजन में लीन रहकर अखण्ड ब्रह्मचार्य का पालन करते हुए वि० सं० ११२६ में असाधारण तपोधनी हेमचन्द्र का स्वर्गवास हो गया। प्रभावकचरित के अनुसार, राजा कुमारपाल भी हेमचन्द्र के असह्य वियोग से छः मास पश्चात् स्वर्ग सिधार गये। कृतित्व ___ हेमचन्द्राचार्य ने अनेक नवीन कृतियों का सृजन किया। आ० हेमचन्द्र एक जैनाचार्य थे। अतः जैन सिद्धान्तों के प्रति उनकी रुचि स्वाभाविक थी। तथापि जीवनोत्थान की प्रेरणा देने वाला ऐसा कोई विषय नहीं, जिस पर उन्होंने अपनी लेखनी न चलाई हो। उन्होंने व्याकरण, काव्य, न्याय, कोश, साहित्य, चारित्र, योग और छन्द किसी भी विषय की उपेक्षा नहीं की। कहा जाता है कि उन्होंने साढ़े तीन करोड़ श्लोकों की रचना की। उनके अनेक ग्रन्थ अनुपलब्ध हैं और बहुत से अप्रकाशित हैं। उनकी कृतियों की नामावली इस प्रकार है - व्याकरण १. सिद्धहेमलघुवृत्ति सिद्धहेम बृहवृत्ति (तत्त्वप्रकाशिका) ३. सिद्धहेमबृहन्न्यास (शब्द महार्णवन्यास) (अपूर्ण) +Mus Winternitz, A History of Indian Literature, pt. II, p. 463 चौलुक्य कुमारपाल, पृ०२४० रतनलाल संघवी, प्राकृत व्याकरण, प्रस्तावना, पृ० १५; Winternitz, A History of Indian Literature, pt. IIp.463 द्रष्टव्य : पीटर्सन की चौथी रिपोर्ट; रतनलाल संघवी. प्राकृत व्याकरण, प्रस्तावना, पृ० १५ वही, पृ० १५ हेमचन्द्राचार्य जीवनचरित्र, पृ०८६-६० चौलुक्य कुमारपाल, पृ०२६६-२६७ (क) नन्दद्वय-रवो वर्षे (२२६)ऽवसानमभवत् प्रभोः। - प्रभावकचरित, २२/८५१ (ख) Indian Antiquary, VXII, P. 254, n. 853 जैन साहित्य का बृहद् इतिहास, भा० ५, पृ० २८ ८. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001981
Book TitlePatanjalyoga evam Jainyoga ka Tulnatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAruna Anand
PublisherB L Institute of Indology
Publication Year2002
Total Pages350
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size25 MB
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