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________________ पातञ्जल एवं जैनयोग-साधना-पद्धति तथा सम्बन्धित साहित्य 31 निष्कर्ष रूप में आ० शुभचन्द्र का समय वि० की ११वीं शती संगत है। इसे मान लेने पर भोज और मुञ्ज की समकालीनता भी घटित हो जाती है। जीवन-चरित्र विश्वभषणभट्टारक कत भक्तामरचरित्र नामक संस्कत ग्रन्थ की उत्थानिका में शभचन्द्र के जीवन के सम्बन्ध में एक लम्बी कथा दी गई है। इस कथा के अनुसार शुभचन्द्र और भर्तृहरि उज्जयिनी के नरेश सिंधुल के पुत्र थे। सिन्धुल के पिता सिंह के काफी दिनों तक कोई सन्तान नहीं हुई। एक दिन राजा सिंह अपनी रानी व मन्त्रियों के साथ वन-क्रीड़ा के लिए गये। वहाँ मुञ्ज के खेत में उन्हें एक बालक पड़ा मिला। राजा व रानी ने उस बालक को घर लाकर उसका पालन-पोषण किया और उसका नाम 'मुञ्ज रखा । मुञ्ज के वयस्क होने पर राजा ने उसका विवाह कर दिया। कुछ समय के पश्चात् महाराज सिंह की रानी ने एक पुत्र को जन्म दिया जिसका नाम 'सिंहल' रखा गया। सिंहल की रानी मृगावती ने दो पुत्र रत्नों को जन्म दिया, जिसमें से ज्येष्ठ का नाम 'शुभचन्द्र' और कनिष्ठ का नाम 'भर्तृहरि' रखा गया। बचपन से ही दोनों बालकों की विशेष रुचि तत्त्वज्ञान की ओर थी। अतएव वयस्क होने तक दोनों तत्त्वज्ञान में निपुण हो गये। एक दिन मेघों के पटल को परिवतर्तित होते हुए देख सिंह को वैराग्य हो गया और उसने मुञ्ज एवं सिंहल को राजनीति सम्बन्धी शिक्षा देकर स्वयं जिनदीक्षा ग्रहण कर ली। राजा मुञ्ज अपने भाई के साथ सुखपूर्वक रहने लगे। सिंहल के दोनों बेटे शुभचन्द्र व भर्तृहरि अत्यन्त पराक्रमी और बलशाली थे। एक दिन राजा मुञ्ज को उनकी वीरता देखने का अवसर प्राप्त हुआ। बालकों के अपूर्व बल को देखकर राजा मुञ्ज आश्चर्य चकित हो गये और उनके हृदय में भय उत्पन्न हो उठा। वे सोचने लगे कि बड़े होने पर ये दोनों बालक किसी भी क्षण उन्हें राज्य सिंहासन से च्युत कर देंगे। इस आशंका से उन्होंने दोनों बालकों का वध कराने का आदेश दिया। बालकों को जब इस आदेश का पता लगा तब वे दोनों अपने पिता सिंहल के पास गये। सिंहल ने इस षड्यन्त्र के पूरा करने से पहले ही मुञ्ज को यमलोक पहुँचाने का सुझाव दिया। दोनों कुमारों ने इस विषय पर बहुत विचार-विमर्श किया। परन्तु उनके विशाल हृदय ने उन्हें पितृवद् पूज्य मुञ्ज की हत्या के कलंक से बचा लिया। तत्त्वविशारद, उदार हृदय बालकों को संसार से विरक्ति हो गई। उन्होंने तुरन्त गृहत्याग कर अन्यत्र जाने का विचार किया। उनके इस कृत्य पर उनके पिता स्नेहार्द नेत्रों से उन्हें देखते रहे, परन्तु कुछ बोल नहीं पाये। __शुभचन्द्र ने किसी वन में जाकर एक मुनिराज के निकट जैनधर्म की दीक्षा अंगीकार की और तपश्चरण में निमग्न हो गये। उन्होंने १३ प्रकार के चारित्र' का पालन करते हुए घोर तप किया। एक कौल तपस्वी (तांत्रिक के निकट जाकर उनकी सेवा की और उनसे तांत्रिक दीक्षा लेकर वे तन्त्रसाधना में लीन हो गये। १२ वर्ष तक भर्तृहरि ने अनेक विद्याओं की साधना की और योग-बल से अनेक ऋद्धियाँ प्राप्त की। उन्हें एक योगी ने एक ऐसी विद्या और ऐसा अद्भुत रस प्रदान किया, जिसके प्रयोग व स्पर्श से तांबा सुवर्ण बन सकता था। एक दिन भर्तृहरि को चिन्ता हुई कि उसका भाई शुभचन्द्र न जाने किस स्थिति में है। उन्होंने अपने एक शिष्य को शुभचन्द्र का समाचार लाने के लिए भेजा। शिष्य जंगलों में घूमता हुआ उस स्थल पर पहुँचा जहाँ दिगम्बर मुनि शुभचन्द्र निर्वस्त्र हो तपस्या कर रहे थे। शिष्य ने वापिस आकर सम्पूर्ण वृत्तान्त भर्तृहरि १. शास्त्रों में चारित्र के १३ प्रकार बताये गए हैं - ५ महाव्रत, ५ समिति और ३ गुप्ति। - द्रव्यसंग्रह, ४५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001981
Book TitlePatanjalyoga evam Jainyoga ka Tulnatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAruna Anand
PublisherB L Institute of Indology
Publication Year2002
Total Pages350
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size25 MB
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