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पातञ्जलयोग एवं जैनयोग का तुलनात्मक अध्ययन
अमितगति द्वितीय ने अपना 'सुभाषितरत्नसन्दोह' वि० सं० १०५० और 'पंचसंग्रह(प्राकृत) १०७३ में समाप्त किया। इनसे दो पीढ़ी पूर्व अमितगति (प्रथम) हुए हैं, जिनका समय ११वीं शती का प्रथम चरण माना जाता है। इससे स्पष्ट होता है कि ज्ञानार्णव के कर्ता शुभचन्द्र आ० सोमदेव व अमितगति से पूर्व अर्थात् ११वीं शती के पूर्व नहीं हुए हैं। परवर्ती ग्रन्थों पर प्रभाव
आ० शुभचन्द्र के समय को सिद्ध करने के लिए उनके ग्रन्थ का अन्य किन ग्रन्थों पर प्रभाव रहा है, यह जानना भी उपयोगी है।
स्वामिकार्तिकेयानुप्रेक्षा' की भट्टारक शुभचन्द्र (१६वीं शती) विरचित टीकामें 'तथा ज्ञानार्णवे' एवं भट्टारक शुभचन्द्र (१६वीं) के पूर्ववर्ती पंडित आशाधर (१३वीं शती) कृत 'भगवतीआराधना' की टीका में 'उक्तं च ज्ञानार्णवे विस्तरेण' कहकर ज्ञानार्णव के कुछ श्लोक' उद्धृत हैं। पं० आशाधर ने जिनयज्ञकल्प (प्रतिष्ठासारोद्धार) की प्रशस्ति में उक्त टीका के रचे जाने की सूचना स्वय दी है। जिनयज्ञकल्प वि० सं० १२८५ (ई० १२२८) में समाप्त किया गया था। पं० आशाधर को मूलाराधना की रचना में और ज्ञानार्णव का परिशीलन करने में कुछ समय लगा होगा। अतः ज्ञानार्णव उससे कम से कम ४०-५० वर्ष पूर्व लिखा जाना चाहिए। उक्त निरूपण के आधार पर यह सम्भावित है कि आ० शुभचन्द्र वि० सं० १२८५ से पूर्व हुए होंगे।
उक्त काल को कुछ और संकुचित करने के लिए आ० हेमचन्द्रसूरि विरचित योगशास्त्र पर दृष्टिपात करना उचित है। सुप्रसिद्ध जैनाचार्य हेमचन्द्र (वि० सं० ११४५-१२२६, ई० १०८८-११७२) कृत योगशास्त्र और शुभचन्द्रकत ज्ञानार्णव में बहत अधिक समानता है। ऐसा प्रतीत होता है कि दोनों में से किसी एक ने दूसरे के ग्रन्थ से प्रेरणा एवं आंशिक रूप से आधार सामग्री ली है। योगशास्त्र का प्राणायाम और ध्यान का प्रसंग ज्ञानार्णव के वर्णन और विषय से पूर्ण साम्य रखता है। केवल छन्दोगत परिवर्तन होने से कुछ शब्दभेद दृष्टिगत होता है। 'ज्ञानार्णव' में जहाँ विवेचन अत्यन्त विस्तृत, क्रमविहीन व कुछ अप्रासंगिक चर्चा से युक्त है, वहाँ 'योगशास्त्र' का विवेचन संक्षिप्त एवं क्रमबद्ध होने के साथ साथ अप्रासंगिक चर्चा से रहित है। ऐसा प्रतीत होता है कि हेमचन्द्र ने ज्ञानार्णव के ही प्रसंगों को अपने बुद्धिचातुर्य से व्यवस्थित एवं संक्षिप्त रूप प्रदान किया है। इसके अतिरिक्त यह भी ध्यातव्य है कि आ० हेमचन्द्र ने शुभचन्द्राचार्य द्वारा ज्ञानार्णव में उदधत की गई अनेक दिगम्बराचार्यों की गाथाओं को अपने योगशास्त्र में उद्धृत नहीं किया।
उक्त मान्यताओं के आधार पर यह सम्भावना की जा सकती है कि आ० हेमचन्द्र के समक्ष शुभचन्द्र का ज्ञानार्णव अवश्य रहा होगा, जिसका परिशीलन कर उन्होंने अनिवार्य परिवर्तन एवं संशोधन के साथ उसे नया रूप देकर योगशास्त्र की रचना की होगी।
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सुभाषितरत्नसन्दोह, ६२२ । २. पंचसंग्रह (प्राकृत). अन्तिम प्रशस्ति, पद्य ६
द्रष्टव्य : स्वामिकार्तिकेयानुप्रेक्षा, गा०४८७ पर भट्टारक शुभचन्द्रकृत टीका। ४. मूलाराधना, गाथा १८८७
ज्ञानार्णव, ३६/३८, ३६.४१-४६
द्रष्टव्य : जिनयज्ञकल्प के प्रशस्ति पद्य ७. योगशास्त्र, ५वें प्रकाश से ११वें प्रकाश तक
ज्ञानार्णव. २६ से ३६ सर्ग तक ।
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