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पातञ्जल एवं जैनयोग-साधना-पद्धति तथा सम्बन्धित साहित्य
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मानतुंग, कालिदास, वररुचि और धनंजय को भी शुभचन्द्र के समसामायिक बताया गया है। उक्त व्यक्तियों में से एक का भी समय ज्ञात होने पर शुभचन्द्र का समय जाना जा सकता है। ___ आ० अमितगति कृत 'सुभाषितरत्नसंदोह' की प्रशस्ति के अनुसार मुञ्ज का समय संवत् १०५० से १०७८ तक रहा। इसके पश्चात् भोज राज्यपद पर आसीन हुए। भोज के राज्यासीन होने का समय ही शुभचन्द्राचार्य का समय माना जाना उचित है। पंचसंग्रह के अनुसार वि० सं० १०७३ में भोज मुञ्ज के राज्यपट्ट पर आसीन हुए। अनेक पाश्चात्य विद्वान् भी राजा भोज को ईसा की ११वीं शताब्दी के पूर्वार्ध का मानते हैं। राजा भोज का दिया हुआ एक दानपत्र, जो वि० सं० १०७८ (ई० सन् १०२२) में लिखा गया था, उक्त मत की पुष्टि करता है। परन्तु उस मत की परीक्षा हेतु ज्ञानार्णव में उद्धृत पूर्ववर्ती आचार्यों के समय पर भी दृष्टिपात करना उपयुक्त होगा।
ग्रन्थ के प्रारम्भ में आ० शुभचन्द्र ने अपने पूर्ववर्ती कुछ आचार्यों का श्रद्धापूर्वक स्मरण किया है। उन आचार्यों में समन्तभद्र, देवनंदि, भट्ट अकलंक के अतिरिक्त आ० जिनसेन' का भी निर्देश है। आ० जिनसेन ने अपने ग्रन्थ 'जयधवला' को ८३७ ई० में समाप्त किया था। उनकी इस रचना की प्रसिद्धि में कम से कम दस वर्ष अवश्य लगे होंगे। इस आधार पर शुभचन्द्र की पूर्वसीमा ८४७ ई० मानना उपयुक्त होगा। ज्ञानार्णव पर आचार्य पूज्यपाद (ई०५:-६वीं शती.) विरचित समाधितन्त्र व इष्टोपदेश, भट्टाकलंकदेव (८वीं शती) विरचित तत्त्वार्थवार्तिक, आ० जिनसेन (६वीं शती) कृत आदिपुराण (२१वां पर्व) के अतिरिक्त जिन अन्य ग्रन्थों का प्रभाव है, उनमें आ० अमृतचन्द्रसूरि (१०वीं शती) के पुरुषार्थसिद्धयुपाय, रामसेनाचार्य (१०वीं शती) के तत्त्वानुशासन, सोमदेवसूरि (११वीं शती) के उपासकाध्ययन तथा आ० अमितगति प्रथम (१०-११वीं शती) के 'योगसारप्राभृत' आदि ग्रन्थों के नाम उल्लेखनीय हैं। उक्त ग्रन्थों के अनेक पद्य ज्यों के त्यों या परिवर्तित रूप में ज्ञानार्णव' में उपलब्ध होते हैं। आ० शुभचन्द्र ने 'उक्तं च' कहकर उनको अपने ग्रन्थ में उद्धृत किया है। उदाहरणार्थ सोमदेवसूरि कृत यशस्तिलकचम्पू के छठे आश्वास के 'हतं ज्ञानं क्रियाशून्य' आदि पद्य को ज्ञानार्णव में 'उक्तं च' कहकर उद्धृत किया है।
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१. आदिनाथस्तोत्र, भूमिका, जैनग्रन्थ रत्नाकर कार्यालय. बंबई । २. समारूढे पूतत्रिदशवसतिं विक्रमनृपे । सहस्र वर्षाणां प्रभवति हि पञ्चाशदधिके ।
समाप्ते पंचम्यामवति धरणी मुंजनृपतौ। सिते पक्षे पौषे बुधहितमिदं शास्त्रमनघम्।। - सुभाषितरत्नसंदोह, पद्य ६२२ त्रिसप्तत्याधिकेऽब्दानां सहसे शकविद्विषः । मसूतिकापुरे जातमिदं शास्त्रं मनोरमम् ।।- पंचसंग्रह (संस्कृत), अन्तिमप्रशस्ति पद्य ६ A History of Indian Literature, Pt. II, p. 528, fn. 1 See : Epigraphica Indica, pt. III, p.48-50 समन्तभद्रादिकवीन्द्रभास्यतां स्फुरन्ति यत्रामलसूक्तिरश्मयः । व्रजन्ति खद्योतवदेव हास्यतां न तत्र किं ज्ञानलवोद्धता जनाः ।। - ज्ञानार्णव, १/१४ अपाकुर्वन्ति ययाचः कायवाक्चित्तसंभवम् । कलंकमगिनां सोऽयं देवनन्दी नमस्यते ।। - वही, १/१५ श्रीमद्भट्टाकलंकस्य पातु पुण्या सरस्वती । अनेकान्तमरुन्मार्गे चन्द्रलेखायितं यथा।। - वही १/१७ जयन्ति जिनसेनस्य वाचस्त्रविद्यवन्दिताः
योगिभिर्या समासाद्य स्खलितं नात्मनिश्चये। - वही, १/१६ १०. जैनधर्म के प्रभावक आचार्य, पृ० २६१. ११. हतं ज्ञानं क्रियाशून्य हता चाज्ञानिनः क्रिया ।
धावन्नप्यन्धको नष्टः पश्यन्नपि च पङ्गुकः ।। - यशस्तिलकचम्पू ६/२६, ज्ञानार्णव, ४/२६ (३); तत्त्वार्थवार्तिक, १/१/४६
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