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पातञ्जलयोग एवं जैनयोग का तुलनात्मक अध्ययन
अन्यमुद, रुग और आसंग - इन आठ चित्तगत दोषों का वर्णन किया गया है। १६वें प्रकरण में उक्त आठ दोषों के प्रतिपक्षी - अद्वेष, जिज्ञासा, शुश्रूषा, श्रवण, बोध, मीमांसा, प्रतिपत्ति और प्रवृत्ति - इन आठ चित्तगत गुणों का निरूपण तथा योग-साधना द्वारा स्वानुभूति रूप परमानन्द की प्राप्ति के उपायों का भी वर्णन है। इस ग्रन्थ में योगविषयक कोई नवीन चर्चा उपलब्ध नहीं होती।
आ. आचार्य शुभचन्द्र
ज्ञानार्णव के रचयिता शुभचन्द्र किस संघ या गच्छ के थे और उनकी गुरु-परम्परा क्या थी, इसके सम्बन्ध में स्वयं लेखक ने कोई जानकारी नहीं दी है। यदि उक्त ग्रन्थ के प्रत्येक सर्ग के अन्त में उनका नाम नहीं मिलता, तो यह जानना कठिन होता कि ज्ञानार्णव के रचयिता कौन हैं।' शुभचन्द्र का अपने विषय में कुछ न कहना उनकी निरभिमानता का द्योतक है, ऐसा उन्होंने स्वयं कहा भी है।
शुभचन्द्र नाम के अनेक विद्वान् हुए हैं। एक शुभचन्द्र की चर्चा श्रवणबेलगोल के ४३वें संख्यक अभिलेख में मिलती है। वहाँ उन्हें गण्डविमुक्त मलधारिदेव का शिष्य बताते हुए उनका स्वर्गवास शक सं० ११८० ई० में बताया गया है। द्वितीय शुभचन्द्र का निर्देश श्रवणबेलगोल के ३६वें अभिलेख में हुआ है जो देवकीर्ति के शिष्य थे और जिनका स्वर्गवास वि० सं० १२२० में हुआ था। तीसरे शुभचन्द्र सागबाडा के पट्ट पर वि० सं० १६०० (ई० सन् १५४४) में हुए हैं। वे षटभाषा कवि-चक्रवर्ती की उपाधि से अलंकृत थे। पाण्डवपुराण, स्वामी कार्तिकेयानुप्रेक्षा की संस्कृत टीका इत्यादि लगभग ४०-५० ग्रन्थों के वे रचयिता माने जाते हैं, परन्तु ज्ञानार्णव के रचयिता शुभचन्द्र से उनका कोई सम्बन्ध नहीं है।'
समय
'ज्ञानार्णव' में ग्रन्थ का रचनाकाल नहीं दिया गया। अतः रचनाकाल के सम्बन्ध में अन्य बाह्य व अन्तः प्रमाणों से विचार करना होगा।
पाटण के खेतरवासी नामक श्वेताम्बर जैन भण्डार (नं० १३) में 'ज्ञानार्णव' की एक प्रति विद्यमान है जो वैशाखसुदी १० शुक्रवार सं० १२८४ को लिखी हुई है। ग्रन्थ के अन्त में लिखी गई प्रशस्ति में यह उल्लिखित है कि आर्यिका जाहिणी ने कर्मों के क्षय के लिए (कर्मक्षयार्थ) ज्ञानार्णव नामक ग्रन्थ शुभचन्द्र योगी के लिए लिखकर दिया। यहाँ योगी शुभचन्द्र को ध्यानाध्ययनरत, तप और शास्त्र के निधान, तत्त्वों के ज्ञाता और रागादि रिपुओं को पराजित करने वाले मल्ल आदि विशेषणों से अलंकृत करते हुए यह निर्देश भी दिया गया है कि इसे केशरिसुत वीसल ने सहस्रकीर्ति के लिए संवत १२८४ में लिखा। अतः शुभचन्द्र की उत्तरवर्ती सीमा तेरहवीं शती प्रतीत होती है।
श्री विश्वभूषणाचार्य कृत 'भक्तामरचरित' नामक संस्कृत ग्रन्थ में शुभचन्द्र के जीवन के संबंध में विस्तृत जानकारी उपलब्ध है। उक्त ग्रन्थ की उत्थानिका में वर्णित कथा से ज्ञात होता है कि भर्तृहरि, भोज, शुभचन्द्र और मुञ्ज समकालीन थे। इसके अतिरिक्त 'भक्तामरस्तोत्र' की रचना से संबंधित कथा में
१. ज्ञानार्णव, श्री परमश्रुतप्रभावकमंडल, प्रस्तावना, पृ० १८. २. न कवित्वाभिमानेन न कीर्तिप्रसरेच्छया ।
कृतिः किन्तु मदीयेयं स्वबोधायैव केवलम।। - ज्ञानार्णव, १/१६ तीर्थकर भगवान महावीर और उनकी आचार्य परम्परा, (भाग ३) पृ० १४८ ज्ञानार्णव, प्रस्तावना, पृ० २६ द्रष्टव्य : ज्ञानार्णव, ग्रन्थ प्रशस्ति द्रष्टव्य : आचार्य शुभचन्द्र का समय निर्णय', ज्ञानार्णव, श्री परमश्रुतप्रभावकमण्डल, पृ० १३
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