SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 50
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ पातञ्जलयोग एवं जैनयोग का तुलनात्मक अध्ययन को बताया, जिससे भर्तृहरि के हृदय में अत्यन्त करुणा जागृत हुई। उन्होंने अपनी तुम्बी से आधा रस दूसरी तुंबी में डालकर शिष्य के हाथ शुभचन्द्र के पास भेजा, ताकि वह उसके द्वारा सोना बनाकर अपनी दरिद्रता को दूर कर सके। शुभचन्द्र ने उस रस को पत्थर की शिला पर डलवा दिया। ___ शिष्य ने भर्तृहरि को जब यह घटना सुनायी तो वे स्वयं ममतावश शुभचन्द्र के पास पहुँचे। शुभचन्द्र निस्पृही साधु थे। उन्होंने शेष रस को भी साधारण जल की तरह पाषाण-शिला पर फेंकवा दिया। भर्तृहरि को इससे बहुत दुःख हुआ। शुभचन्द्र ने भर्तृहरि को समझाते हुए कहा - "भाई ! यदि सोना बनाना ही अभीष्ट था, तो घर क्यों छोड़ा? घर में क्या सोना-चांदी-माणिक्य की कमी थी ? सांसारिक दुःखों की निवृत्ति तन्त्र, मन्त्र, यन्त्र अथवा रस से नहीं हो सकती। तप में ही वह शक्ति है। इतना कहकर शुभचन्द्र ने अपने पैरों के नीचे की थोड़ी सी धूल उठाकर पास में पड़ी हुई उसी शिला पर डाल दी। डालते ही वह विशाल शिला सुवर्णमय हो गई। यह देखकर भर्तृहरि अवाक् हो गये। चरणों में गिरकर बोले, “भगवन् ! क्षमा कीजिए। अपनी मूर्खता से आपका माहात्म्य न जानकर मैंने यह अपराध किया है। सचमुच मैंने इन मन्त्र-विद्याओं में फंसकर अपना इतना समय व्यर्थ ही खो दिया और पापोपार्जन किया। अब कृपा करके मुझे यह लोकोत्तर दीक्षा देकर अपने समान बना लीजिए, जिससे इस दुःखमय संसार से हमेशा के लिए मुक्त होने का प्रयत्न कर सकूँ। __भर्तृहरि को इस प्रकार प्रायश्चित्त करते देख श्री शुभचन्द्र मुनि ने उसे धर्मोपदेश दिया, जिसे सुनकर भर्तृहरि को यथार्थ ज्ञान हुआ। उन्होंने तत्काल ही शुभचन्द्र से दीक्षा ली और दिगम्बर मुनि बन गये। तत्पश्चात् शुभचन्द्र ने भर्तृहरि को मुनिमार्ग में दृढ़ता लाने तथा योग का ज्ञान कराने हेतु एक विस्तृत ग्रन्थ की रचना की, जिसका नाम रखा 'ज्ञानार्णव' । सचमुच यह ग्रन्थ अपने नाम के अनुरूप है। यह ग्रन्थ ज्ञान का अर्णव या समुद्र और योगमार्ग को प्रदीप्त करने वाला उत्कृष्ट दीपक है, जिसे पाकर भर्तृहरि को महान् ज्ञान की उपलब्धि हुई और वे कर्मयोगी बन गये। कृतित्व आ० शुभचन्द्र दिगम्बर जैन-परम्परा के समस्त ग्रन्थों के अध्येता, जैन सिद्धान्तों के मर्मज्ञ, बहुश्रुत विद्वान् एवं प्रतिभासम्पन्न कवि थे। वे स्वयं बहुत बड़े योगी थे। उन्होंने जैन ग्रन्थों के अतिरिक्त योगविषयक जैनेतर ग्रन्थों का भी अध्ययन किया था। उन्होंने स्वानुभव, त्याग और साधना के बल पर ही जैनयोग-साहित्य को एक विशाल ग्रन्थ (ज्ञानार्णव) के रूप में अनुपम सामग्री प्रदान की। ज्ञानार्णव की भाषा सरल व सुबोध है। कविता मधुर व आकर्षक है। इसमें अनेक विषयों के साथ इतर सम्प्रदायों की भी चर्चा व समीक्षा की गई है, जिससे उनकी बहुश्रुतता का ज्ञान होता है। उन्होंने अपने समय में प्रचलित योगविषयक साहित्य का गम्भीरतापूर्वक अध्ययन किया था, जिसका उन्होंने ज्ञानार्णव में समुचित उपयोग किया है। ज्ञानार्णव - एक परिचय 'ज्ञानार्णव' जैनयोग-परम्परा में अत्यन्त प्रसिद्ध रचना है। दिगम्बर-परम्परा में तत्त्वानुशासन के पश्चात् 'ध्यान' पर उपलब्ध एकमात्र ग्रन्थ 'ज्ञानार्णव' ही है, जो विद्वज्जनों में अपेक्षाकृत अधिक प्रसिद्ध है। इस विशद ग्रन्थ में ध्यान के अंगभूत ऐसे विषयों की भी चर्चा है, जिनका वर्णन उससे पूर्व जैन साहित्य में अन्यत्र कहीं नहीं मिलता। ज्ञानार्णव में ३६ अध्याय और. २२३० श्लोक हैं। इसमें ध्यान की साधनभूत १२ भावनाओं के स्वरूप, संसारबंध के कारण, कषाय, मन के विषय, आत्मा एवं बाह्य पदार्थों के संबंध तथा मोक्ष के मार्गभूत रत्नत्रय Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001981
Book TitlePatanjalyoga evam Jainyoga ka Tulnatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAruna Anand
PublisherB L Institute of Indology
Publication Year2002
Total Pages350
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size25 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy