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पातञ्जलयोग एवं जैनयोग का तुलनात्मक अध्ययन
२३. संग्रहणीवृत्ति २४. सपंचासित्तरी/सम्बोधसित्तरी . २५. संस्कृत आत्मानुशासन
२६. व्यवहारकल्प वैसे तो आ० हरिभद्र के सभी ग्रन्थ बहुत महत्वपूर्ण हैं और उनकी सर्वतोमुखी प्रतिभा के परिचायक हैं, तथापि उनके योगविषयक ग्रन्थों में जो अद्भुत प्रतिभा, स्वानुभव एवं नवीनता पाई जाती है, वह अन्यत्र कहीं दिखाई नहीं देती। अतः उनके वैशिष्ट्य को जानने के लिए उनका संक्षिप्त परिचय प्राप्त करना अत्यन्त आवश्यक है।
हरिभद्र के योग-ग्रन्थों का संक्षिप्त परिचय योगबिन्दु (संस्कृत) ___ इस ग्रन्थ में ५२७ श्लोकों में जैनयोग के विविध विषयों की विस्तृत व्याख्या है। इसमें सर्वप्रथम योग के अधिकारी व अनधिकारी की चर्चा करते हुए उन्हें क्रमशः शुक्लपक्षी तथा भवाभिनन्दी नाम से अभिहित किया गया है। इन दोनों का स्वरूप पृथक्-पृथक् समझाने के अनन्तर योग के अधिकारी मनुष्य को
की दृष्टि से भिन्न-भिन्न श्रेणियों में विभाजित किया गया है। यथा - अपुनर्बन्धक, सम्यग्दृष्टि (भिन्नग्रन्थि) और चारित्री - देशविरति, सर्वविरति आदि । देशविरति की साधना-भूमिका से प्रारम्भ होने वाले अध्यात्म, भावना, ध्यान, समता, वृत्तिसंक्षय - इन पांच योग अनुष्ठानों का भी यहाँ निरूपण हुआ है। यौगिक अनुष्ठानों को उनकी प्रशस्तता, अप्रशस्तता के आधार पर पांच वर्गों में विभाजित किया गया है। यथा - विष, गरल, अननुष्ठान, तद्धेतु और अमृतानुष्ठान । अनेक स्थानों पर पातञ्जलयोग एवं बौद्धयोग के साथ तुलनात्मक अध्ययन प्रस्तुत करते हुए उनमें परस्पर समन्वय स्थापित किया गया है। इस रचना में योग-निरूपण के साथ-साथ अन्य अनेक दार्शनिक तत्त्वों की भी समीक्षा की गई है। योगदृष्टिसमुच्चय(संस्कृत) ___ इस ग्रंथ में २२७ श्लोक हैं जिनमें कहीं-कहीं तो योगबिन्दु में वर्णित विषयों की ही पुनरावृत्ति हुई है
और कहीं-कहीं बिल्कुल नवीन विषयों की चर्चा है। मुमुक्षु जीव के आध्यात्मिक विकासक्रम का निरूपण नवीन दृष्टिकोण से करते हुए अचरमावर्तकालीन अविकसित अवस्था को 'ओघदृष्टि' तथा चरमावर्तकालीन विकासावस्था को योगदृष्टियों के माध्यम से समझाया गया है। ओघदृष्टि में प्रवृत्ति करने वाले भवाभिनन्दी जीव का निरूपण योगबिन्दु के अनुरूप ही है। योगबिन्दु में वर्णित 'पूर्वसेवा' का ही विस्तृत निरूपण 'योगबीज' के रूप में किया गया है। इसके अतिरिक्त योग्यताभेद के आधार पर योग को इच्छायोग, शास्त्रयोग एवं सामर्थ्ययोग - इन त्रिविध योगों में विभाजित कर उनका स्वरूप स्पष्ट किया गया है। आध्यात्मिक विकास की दृष्टि से योग की प्रारम्भिक भूमिका से लेकर चरमपरिणति तक की भूमिकाओं को कर्मफल के तारतम्य के अनुसार आठ योगदृष्टियों में विभाजित किया गया है। मित्रादि आठ दृष्टियाँ पातञ्जलयोगसूत्र के अष्टांगयोग तथा बौद्धपरम्परा के खेदादि आठ दोषों के परिहार तथा अद्वेषादि आठगुणों के प्रकटीकरण पर आधारित हैं। प्रारम्भिक साधक के लिए विभिन्न आचार-व्यवहारों का निरूपण भी किया गया है। ग्रन्थ के अन्त में गोत्रयोगी, कुलयोगी, प्रवृत्तचक्रयोगी और निष्पन्नयोगी - इन
१. समदर्शी आचार्य हरिभद्र, परिशिष्ट, २
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