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________________ पातञ्जल एवं जैनयोग-साधना-पद्धति तथा सम्बन्धित साहित्य में उतारने का प्रयत्न करना चाहिए।' हरिभद्रसूरि ने विभिन्न परम्पराओं में फैले मतभेदों से साधक को दिग्भ्रमित होने से बचाने के लिए साम्प्रदायिक बंधनों से ऊपर उठाने का प्रयास किया। अपने व दूसरे मतों में साम्य दर्शाने के लिए उन्होंने जो तुलनात्मक दृष्टिकोण अपनाया, वह उनकी व्यापक एवं उदार दृष्टि का परिचायक है। प्रत्येक लेखक की अपनी विशिष्ट शैली होती है। आ० हरिभद्र की भी अपनी निजी शैली है जो प्रतिभा के चमत्कार और भाषासौष्ठव से परिपूर्ण है। आ० हरिभद्र का संस्कृत और प्राकृत दोनों भाषाओं पर पूर्ण अधिकार था। इसलिए उन्होंने दोनों भाषाओं में गद्य एवं पद्यबद्ध ग्रन्थों की रचना की। _ विस्तार, विविधता और गुणवत्ता - इन तीनों दृष्टियों से हरिभद्र की रचनाएँ जैन साहित्य में महत्वपूर्ण हैं। अनुश्रुति के अनुसार, इनकी रचनाओं की संख्या १४४४ कही गई है। इसमें अतिशयोक्ति हो सकती है, परन्तु यह तो निर्विवाद सत्य है कि हरिभद्रसूरि ने अपने जीवन में जैनसाहित्य को जितना समृद्ध किया है, उतना अन्य किसी ने नहीं । गुणरत्न, मणिभद्र और विद्यातिलक - तीनों व्याख्याकारों ने बड़े आदर के साथ हरिभद्र का नाम लिया है तथा एक स्वर से स्वीकार किया है कि हरिभद्र ने १४०० ग्रन्थों की रचना की थी। संभव है, शेष ४४ ग्रन्थ हरिभद्र नाम के अन्य आचार्यों द्वारा लिखे गये हों, जिन्हें भ्रमवश इनके साथ सम्बद्ध कर दिया गया हो। उनके द्वारा रचित ग्रन्थसंख्या में कुछ विद्वानों ने मतभेद प्रकट किया है। वर्तमान में उपलब्ध होने वाले उनके ग्रन्थों में से विशेष प्रसिद्ध और प्रतिष्ठित ग्रन्थों के नाम इस प्रकार हैं CM * * मुद्रित अनुपलब्ध मुद्रित मुद्रित मुद्रित मुद्रित आगमिक प्रकरण अनुयोगद्वारविवृत्ति आवश्यकबृहत्टीका आवश्यकसूत्रविवृत्ति चैत्यवंदनसूत्रवृत्ति अथवा ललितविस्तरा ५. जीवाभिगमसूत्रलघुवृत्ति ६. नन्द्यध्ययनटीका दशवैकालिकटीका (शिष्यबोधिनी) ८. पिण्डनियुक्तिवृत्ति प्रज्ञापनाप्रदेशव्याख्या आचार, उपदेश सम्बन्धी ग्रन्थ अष्टकप्रकरण २. उपदेशपद (प्राकृत) ३. धर्मबिन्दु ४. पंचवस्तुक (प्राकृत) स्वोपज्ञ संस्कृतटीका सहित मुद्रित अनुपलब्ध मुद्रित मुद्रित मुद्रित मुद्रित मुद्रित १. पक्षपातो न मे वीरे न द्वेषः कपिलादिषु । युक्तिमवचनं यस्य तस्य कार्यः परिग्रहः ।। - लोकतत्त्वनिर्णय, १/३८ जैनसाहित्यसंशोधक, भाग १, अंक-१, पृ० २३ चतुर्दशशतसंख्यशास्त्रविरचनाजनितजगज्जन्तूपकारः .... श्रीहरिभद्रसूरिः। - षड्दर्शनसमुच्चय, गुणरत्नसूरिकृत टीका, पृ०१ ४. चतुर्दशशतप्रकरणोपकृतजिनधर्मो भगवान् श्रीहरिभद्रसूरिः । - षड्दर्शनसमुच्चय, मणिभद्रकृत टीका, उपोद्घात ५. षड्दर्शनसमुच्चय, सोमतिलक(विद्यातिलक)कृत लघुदृत्ति, उपोद्घात Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001981
Book TitlePatanjalyoga evam Jainyoga ka Tulnatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAruna Anand
PublisherB L Institute of Indology
Publication Year2002
Total Pages350
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size25 MB
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