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________________ 22 पातञ्जलयोग एवं जैनयोग का तुलनात्मक अध्ययन प्राप्त होती है। दूसरी आपत्ति यह है कि एक अहिंसा व्रतधारी जैनमुनि के लिए साम्प्रदायिक विद्वेष की उक्त चरम सीमा तक पहुँचना कथमपि संभव नहीं है। गुरु के उपदेश से आ० हरिभद्र ने अपने चिन्तन को मोड़ा और शिष्यसंतति के स्थान पर ज्ञानसंतति के विकास में रत हुए। उनकी वृत्तियों का शोधन हुआ, पर शिष्यों की विरहवेदना उनके हृदय में कम नहीं हुई। अतः उन्होंने अपने प्रत्येक ग्रन्थ के अन्त में, किसी न किसी तरह अर्थसम्बन्ध घटाकर 'भवविरह' अथवा 'विरह' शब्द का प्रयोग अवश्य किया है। आज भी उनके ग्रन्थों की पहचान अन्त में प्रयुक्त 'विरह' शब्द से की जाती है। इसलिए हरिभद्र 'विरहांक कवि' भी कहे जाते हैं। __ आ० हरिभद्र सरल एवं सौम्य प्रकृति पुरुष थे। जैनधर्म के प्रति उनकी अनन्य श्रद्धा थी। उनका हृदय निष्पक्षतापूर्ण था। वे उदारचेता साधु एवं सत्य के उपासक थे। धर्म और तत्त्व के विचारों का ऊहापोह करते समय उन्होंने मध्यस्थता एवं गुणानुरागता की किञ्चित् भी उपेक्षा नहीं की। आ० हरिभद्र का बहुश्रुत व्यक्तित्व वैदिक, जैन और बौद्धपरम्परा के गम्भीर अध्ययन से ओतप्रोत था। उनकी यह महान विशेषता थी कि उन्होंने जितनी सफलता के साथ जैनदर्शन पर लिखा, उतनी ही गंभीरता के साथ बौद्ध और वैदिक विषयों पर भी अपनी लेखनी चलाई। खण्डन-मण्डन के समय में भी वे मधुर भाषा का प्रयोग करते थे। उमास्वाति, सिद्धसेन दिवाकर, जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण ने जिस प्रकरणात्मक पद्धति का प्रचलन किया था, उन प्रकरण रचनाओं को आ० हरिभद्र ने व्यवस्थित रूप दिया। उनके समस्त साहित्य में सभी भारतीय चिन्तन-परम्पराओं के पर्याप्त उल्लेख देखने को मिलते हैं। इतना ही नहीं, व्यावहारिक एवं तुलनात्मक दृष्टिकोण के आधार पर उन्होंने जैनधर्म की जिन-जिन विशिष्टताओं को अनुभव किया, उनको तटस्थ भाव से अपने ग्रन्थों में प्रकट भी किया। समाधि-मरण __ जैन-साधना की चरितार्थता मृत्यु के समय देखी जाती है। चाहे श्रावक हो या मुनि, सभी के लिए सल्लेखना के द्वारा मृत्यु को वरण करना अपेक्षित होता है। आ० हरिभद्र ने भी अपने जीवन के अन्तिम काल में अनशन अंगीकार किया और शान्तचित्त से प्राण त्यागकर स्वर्गस्थ हुए। कृतित्व आ० हरिभद्रसूरि ने समस्त संसारी जीवों को पाप, अज्ञान, एवं दुःखमय जीवन से मुक्ति दिलाने की भावना से आचार, न्याय, तर्क, अनेकान्त, योग, कथा, स्तुति एवं ज्योतिष आदि अनेकविध विषयों पर मौलिक ग्रन्थों की रचना की। जैनागम ग्रन्थों पर संस्कृत में वृत्ति लिखने का कार्य भी सर्वप्रथम उन्होंने ही प्रारम्भ किया। सत्य के अधिकाधिक निकट पहुँचा जा सके, इस दृष्टि से उन्होंने जैनेतर दर्शनों के विचारों को भी अपने हृदय में गहनता से उतारने का प्रयास किया। वे अनेकान्तवाद के विशेष पोषक थे। उन्होंने अनेकान्तवाद को दार्शनिक परम्परा में एक व्यावहारिक रूप देने का भी प्रयत्न किया। उनका मत है कि युक्ति की कसौटी पर जो भी तत्त्व परीक्षण में खरा उतरता हो, उसे निःसंकोच, तटस्थभाव से जीवन १. न्यायकुमुदचन्द्र, प्रथम भाग, प्रस्तावना, पृ०३०-३२ अतिशयहृदयाभिरामशिष्यद्वयविरहोमिभरेण तप्तदेहः । निजकृतिमिह संव्यधात् समस्तां विरहपदेन युतां सतां स मुख्यः ।। - प्रभावकचरित, ६/२०६ विरहशब्देन हरिभद्राचार्यकृतत्वं प्रकरणस्यावेदितम्, विरहांकत्वाद् हरिभद्रसूरेरिति। - अष्टकप्रकरण (टीका).पृ० १०४ ४. प्रभावकचरित, ६/२२१; प्रबन्धकोश, पृ० २६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001981
Book TitlePatanjalyoga evam Jainyoga ka Tulnatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAruna Anand
PublisherB L Institute of Indology
Publication Year2002
Total Pages350
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size25 MB
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