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पातञ्जल एवं जैनयोग-साधना-पद्धति तथा सम्बन्धित साहित्य
के अतिरिक्त प्राकृत आदि इतर भाषा वाङ्मय में भी निष्णात हो गए। उनकी सर्वतोमुखी प्रतिभा, विद्वत्ता एवं योग्यता से प्रभावित होकर गुरु ने उन्हें अपना पट्टधर शिष्य बना लिया और आचार्य पद पर नियुक्त किया।
जैसे-जैसे हरिभद्र को जैन दर्शन के गूढ़ रहस्यों का ज्ञान मिलता गया, वैसे-वैसे उनकी आत्मा में वैराग्य एवं संवेग की तीव्र भावना प्रबल होती गयी। उन्होंने परिश्रम, निष्ठा और गुरुभक्ति के साथ अध्ययन करते हुए अल्प समय में ही जिनागम के सूक्ष्म सिद्धांतों का तलस्पशी ज्ञान अर्जित कर लिया।
आ० हरिभद्र के अनेक शिष्य थे, जिनमें हंस और परमहंस नामक दो शिष्यों की कथा 'प्रभावकचरित',२ 'प्रबन्धकोश' आदि ग्रन्थों में मिलती है। कहा जाता है कि वे दोनों शिष्य बौद्ध सिद्धान्तों का अध्ययन करने की इच्छा से किसी बौद्धमठ में गुप्त रूप से गए। वहाँ जैन साधु होने की शंका होने पर बौद्ध गुरु ने उनकी परीक्षा लेनी चाही। उन्होंने परीक्षा के लिए वाटिका के द्वार पर जिनप्रतिमा की स्थापना कर सब शिष्यों को उस पर चरण रखकर चलने का आदेश दिया। हंस और परमहंस ने प्रतिमा पर खडिया मिट्टी से तीन रेखाएँ खींचकर जिनप्रतिमा को बुद्ध प्रतिमा में परिवर्तित कर दिया और उसको लांघकर आगे बढ़ गए। बौद्धों ने उनकी चालाकी जान ली और उनकी हत्या करनी चाही। बौद्धों के उक्त षड्यंत्र का ज्ञान होते ही उन्होंने वह स्थान छोड़ दिया। बौद्ध राजा के सैन्य ने उनका पीछा किया। लड़ते-लड़ते हंस की तो मृत्यु हो गई, परन्त दूसरे भाई परमहंस को बौद्धों से शास्त्रार्थ करने के लिए बाध्य होना पड़ा। बौद्ध पराजित हो गए और उन्होंने परमहंस की भी हत्या करने का प्रयास किया। परमहंस भागने में सफल हो गया और गुरु (हरिभद्र) के समीप पहुँचकर सब वृत्तांत सुनाया। पश्चात् अपने भाई की मृत्यु के शोक के कारण वह भी मृत्यु को प्राप्त हो गया। ___ बौद्धों द्वारा अपने शिष्यों की हत्या किये जाने का समाचार सुनकर आ० हरिभद्र बहुत क्षुब्ध हुए और उन्होंने बौद्धों को शास्त्रार्थ में पराजित कर मृत्युदण्ड देने का निश्चय किया। पराजित दल को गर्म तेल के कुण्ड में जलना पड़ेगा - इस निर्णय के साथ शास्त्रार्थ प्रारम्भ हुआ। हरिभद्र विजयी हुए। बौद्धाचार्य हारने पर, खोलते हुए कड़ाहे में डाल दिए गये । आ० हरिभद्र के गुरु जिनदत्त को जब उक्त घटना की सूचना मिली तो उन्होंने हरिभद्र के कोप के शमन हेतु तीन गाथाएँ लिखकर भेजीं। आ०जिनदत्त द्वारा प्रेषित इन श्लोकों को पढ़ते ही हरिभद्र का कोप शान्त हो गया और वे इस महाहत्या से विरत हुए। कहा जाता है कि उक्त तीन गाथाओं के आधार पर ही आ० हरिभद्र ने 'समरादित्यकथा' (समराइच्चकहा) की रचना की। ऐसा भी माना जाता है कि उन्होंने १४४० बौद्धों का संहार करने का संकल्प किया था, अतः उसके प्रायश्चित के तौर पर उन्होंने उतने ग्रन्थों की रचना की। जैकोबी लिखते हैं कि कोई भी सूक्ष्मदर्शी व्यक्ति उक्त कथा को हरिभद्र के जीवन के तथ्यात्मक वृत्त के रूप में स्वीकार नहीं करेगा।
प्रो० जैकोबी की उक्त मान्यता को नकारा नहीं जा सकता। यह सत्य है कि मध्यकाल में कुछ अंशों में पारस्परिक सांप्रदायिक द्वेष रहा, किन्तु उक्त कथा को यथावत् स्वीकार करने में सबसे प्रमुख आपत्ति यह है कि हरिभद्र से सम्बद्ध उक्त कथा से बहुत कुछ मिलती जुलती कथा अकलंकदेव के विषय में भी
समराइच्चकहा, (संपा०) जैकोबी, प्रस्तावना, पृ० ३६५ २. प्रभावकचरित्र, पृ०६५-६८ ३. प्रबन्धकोश, पृ०५०-५१; न्यायकुमुदचन्द्र की प्रस्तावना, पृ०३२-३५ ४. प्रभावकचरित,६/१८२-१८७
पुरातनप्रबंधसंग्रह, पृ० १०५
प्रबंधकोश, पृ०५२ ७. जैकोबी, समराइच्चकहा, प्रस्तावना, पृ० १७
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