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पातञ्जलयोग एवं जैनयोग का तुलनात्मक अध्ययन
हरिभद्र अद्भुत प्रतिभाशाली सम्पन्न विद्वान् थे, इसलिए उन्हें चित्तौड़ राज्य के जितारि नामक राजा का पुरोहित बनने का अवसर मिला।' राजदरबार में उनकी अच्छी प्रतिष्ठा थी। राजपुरोहित के सम्मान में जय-जय के नारों से वातावरण गुंजायमान हो जाता था। उनकी कीर्ति दिगन्त तक फैली हुई थी।
हरिभद्र पण्डितों में अग्रणी थे। उन्हें षड्दर्शनों का तलस्पर्शी पाण्डित्य और वेदविद्याओं में परम-निष्णातता प्राप्त थी। इसी कारण उन्हें 'वादीन्दु' और 'विद्वत्-शिरोमणि' कहा जाता था। अपनी असाधारण प्रतिभा पर उन्हें बहुत गर्व था। उनका यह विश्वास था कि संसार में ऐसी कोई भी विद्या नहीं है जिसे वे न जानते हों अथवा जिसे समझने में उन्हें कोई कठिनाई होती हो। कहा जाता है कि समस्त जम्बूद्वीप में उनके जैसा विद्वान् कोई नहीं है, इसे घोषित करने के लिए वे हाथ में जम्बू वृक्ष की शाखा रखा करते थे। उनकी यह प्रतिज्ञा थी कि यदि कभी किसी शास्त्र या वचन का अर्थ समझने में वे असफल रहेंगे, तो उसे समझने के लिए उन्हें किसी का भी शिष्यत्व ग्रहण करने में कोई संकोच नहीं होगा। संयोगवश एक दिन ऐसा ही हुआ। एक छोटी सी घटना ने उनके सारे जीवन को परिवर्तित कर दिया। एक बार वे एक जैन उपाश्रय के पास से गुजर रहे थे। उस समय उपाश्रय में याकिनी महत्तरा नामक एक जैन साध्वी आगमों का पाठ कर रही थी। उसके मुख से उच्चरित एक प्राकृत गाथा का अर्थ हरिभद्र की समझ में नहीं आया। वे उपाश्रय में गए और महत्तरा जी से उक्त गाथा का अर्थ पूछा, तथा प्रतिज्ञानुसार शिष्यत्व प्रदान करने की प्रार्थना की। साध्वी ने उन्हें अपने गुरु आ० जिनदत्तसूरि, जो विद्याधर कुल के आ० जिनभट्ट के गुरुभाई थे, के पास जाने के लिए कहा। प्रातःकाल होते ही हरिभद्र जिनदत्तसरि के पास पहुँचे। उनके मार्ग में वह जैन मन्दिर भी आया जहाँ एक बार एक उन्मत्त हाथी से बचने के लिए उन्होंने आश्रय लिया था, और “वपुरेव तवाचष्टे स्पष्टमिष्टान्नभोजनम्" कहकर जिनप्रतिमा का उपहास किया था। आज उस वाक्य को स्मरण कर उनका हृदय तप रहा था। हृदय के भाव निर्मल हो जाने से पुनः प्रस्फुटित होने वाली उस कविता का रूप अब सर्वथा भिन्न हो गया था। गरुचरणों के समीप पहँचकर जब हरिभद्र ने याकिनी महत्तरा द्वारा गायी जाने वाली गाथा का अर्थ पूछा तो उन्होंने जैनधर्म स्वीकार किए बिना उसका अर्थ बताने से इन्कार कर दिया। अन्ततः हरिभद्र ने जिनदत्तसूरि के पास जैन दीक्षा अंगीकार की और साथ ही अपनी प्रतिज्ञा का पालन करने के लिए याकिनी महत्तरा को अपनी धर्ममाता के रूप में स्वीकार किया। हरिभद्र ने अपनी कृतियों के अन्त में अपने आपको "धर्मतो याकिनीमहत्तरासनः" कहकर महत्तरा जी के प्रति अपना बहुमान प्रदर्शित किया है।
आ० हरिभद्र वैदिकदर्शन के पारगामी विद्वान् तो पहले ही थे। जैन दीक्षा अंगीकार कर लेने के पश्चात् उन्होंने जैनपरम्परा के अनेकविध शास्त्रों का भी पारगामी अवगाहन किया और अब वे संस्कृत वाङ्मय
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१. प्रभावकचरित, ६/७
परिभवनमतिर्महावलेपात् क्षितिसलिलाम्बरवासिना बुधानाम् । अवदारणजालकाधिरोहण्यपि स दधौ त्रितयं जयाभिलाषी ।। स्फुटति जठरमत्र शास्त्रपूरादिति स दधावुदरे सुवर्णपट्टम् । मम सममतिरस्ति नैव जम्बूक्षितिवलये वहते लतां च जम्ब्वाः ।। - प्रभावकचरित, ६/६.१० जैन साहित्यनो संक्षिप्त इतिहास, पृ० १५७ चक्किदुगं हरिपणगं पणगं चक्कीण केसवो चक्की ।
केसव चक्की केसव दुचक्की केसी य चक्की य ।। - आवश्यकनियुक्ति, ४२१: प्रभावकचरित, ६/२१ ५. प्रभावकचरित,६/१७
वपुरेव तवाचष्टे भगवन् ! वीतरागताम् ।
न हि कोटरसंस्थेऽग्नौ तरुर्भवति शाद्वलः । - प्रभावकचरित, ६/२६ ७. द्रष्टव्य : हरिभद्रसूरिकृत आवश्यकसूत्रवृत्ति तथा उपदेशपद की प्रशस्ति ।
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