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पातञ्जल एवं जैनयोग-साधना-पद्धति तथा सम्बन्धित साहित्य
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मल्लवादी आचार्य, जिन्होंने धर्मोत्तरकृत 'न्यायबिन्दुटीका' पर टिप्पणी लिखी, हरिभद्र के बाद ई० ६वीं शती में हुए हैं। इन दोनों मल्लवादी नामक आचार्यों को एक समझकर नेमिचन्द्र शास्त्री ने आ० हरिभद्र का समय ६वीं शती ई० सिद्ध करने का जो प्रयास किया है वह निर्धान्त नहीं है। मुनि जिनविजय का उक्त मत सब भ्रान्तियों को निरस्त कर देता है, इसलिए वही तर्कसंगत प्रतीत होता है। किन्तु इस मत को मानने में जो मुख्य आपत्ति है, वह विक्रम संवत् ५८५ में हरिभद्र के स्वर्गवास का उल्लेख किया जाना है। कुछ विद्वानों ने यह सुझाव दिया है कि 'विचारसारप्रकरण' आदि में हरिभद्र के स्वर्गवास की जो तिथि ५८५ संवत् बताई गई है, उसे विक्रम संवत् की अपेक्षा गुप्त संवत् समझना चाहिए। गुप्त संवत् का प्रारम्भ ई० १८५-१८६ के आसपास हुआ था। इस प्रकार हरिभद्र का समय गुप्त संवत् ५८५ अर्थात् ई० ७७० के आसपास सिद्ध होता है।
इसके अतिरिक्त, आ० हरिभद्र के ग्रन्थों में जो सांस्कृतिक सामग्री प्राप्त होती है, वह भी आठवीं शती में आ० हरिभद्र के अस्तित्व को पुष्ट करती है। अतः मुनि जिनविजय जी द्वारा प्रतिपादित मत की सत्यता स्थापित हो जाती है। इस मत को प्रायः सभी विद्वानों ने मान्य घोषित किया है। संक्षेप में, आ० हरिभद्र का समय ८ वीं शती मानना ही उचित है।
जीवन परिचय
आ० हरिभद्र के जीवनवृत्त के विषय में जानकारी देने वाले ग्रन्थों में सबसे अधिक प्राचीन समझी जानेवाली भद्रेश्वर कृत 'कहावली'२ नामक प्राकृत कृति है। 'कहावली' के अनुसार इनका जन्मस्थान 'पियूँगई बंभपुणी है जबकि अन्य ग्रन्थों में इनका जन्मस्थान चित्तौड़ - चित्रकूट माना गया है। यद्यपि ये दोनों स्थान-निर्देश भिन्न हैं तथापि इनमें विशेष विसंगति नहीं होनी चाहिए क्योंकि संभवतः बंभपुणी (जिसका संकेत ब्रह्मपुरी से मिलता है) का संबंध चित्तौड़ से अथवा उसके समीपस्थ किसी ब्राह्मण बस्ती से रहा होगा। इनका जन्म एक ब्राह्मण परिवार में हुआ था। पिता का नाम शंकरभट्ट और माता का नाम गंगा था।
हरिभद्र ने अपनी प्रारम्भिक शिक्षा कहाँ और किससे प्राप्त की, इसका कहीं कोई निर्देश नहीं मिलता। परन्तु यह तो स्वाभाविक ही है कि जन्मतः ब्राह्मण होने के कारण उनका प्रारम्भिक विद्याभ्यास ब्राह्मण परम्परानुकूल ही हुआ होगा। उन्होंने किसी अच्छे ब्राह्मण विद्यागुरु अथवा विद्यागुरुओं के पास व्याकरण, साहित्य, दर्शन और धर्मशास्त्र आदि संस्कृत-प्रधान विद्याओं का गहरा और पक्का परिशीलन किया, और चौदह प्रकार की विद्याओं पर आधिपत्य प्राप्त किया।
१. आचार्यहरिभद्रस्य समयनिर्णयः, जैनसाहित्यसंशोधक ग्रन्थमाला अंक १, पृ०६, १०
यह कृति अमुद्रित है। इसकी हस्तलिखित प्रति पाटन के जैन भण्डार में उपलब्ध है। इसका रचना समय निश्चित नहीं है, परन्तु इतिहासज्ञ इसे विक्रम की १२वीं शती के आसपास का मानते हैं । द्रष्टव्य : संघवी पाडा पाटन के जैन भण्डार की वि० सं० १४६७ में उल्लिखित ताडपत्रीय पोथी, खण्ड २. पत्र ३००वां (क) हरिभद्रसूरिकृत उपदेशपद पर चंद्रप्रभसूरिकृत टीका (ख) गणधरसार्धशतक पर सुमतिगणिकृत वृत्ति (ग) चन्द्रप्रभसूरिकृत प्रभावकचरित्र, नवम् श्रृंग, श्लो०५ (घ) राजशेखरसूरिकृत प्रबंधकोश, वि.सं. १४०५, पृ०६० संकरो नाम भटो तस्स गंगा नाम भट्टिणी।
तीसे हरिभदो नाम पंडिओ पुत्तो। - द्रष्टव्य : कहावली पत्र सं० ३०० ६. समदर्शी आचार्य हरिभद्र, पृ० १०
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