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पातञ्जलयोग एवं जैनयोग का तुलनात्मक अध्ययन
(६००-६५०ई०), धर्मपाल (६३५ ई०), कुमारिल' (ई० ६२० से६८० तक), शुभगुप्त (६४०-७००ई०) और शान्तिरक्षित (७०५-७३२ ई०)। अंतः स्पष्ट है कि हरिभद्रसूरि की पूर्वसीमा ७०० ई० है। चूंकि उद्योतनसूरि (७७८ ई०) ने हरिभद्रसूरि को गुरु रूप में स्मरण किया है, अतः ७७८ ई० को उनकी उत्तरावधि मानना चाहिये। इसप्रकार हरिभद्रसूरि का स्थितिकाल ई० ७०० से ७७० के मध्य मानना संगत होगा। ___ मुनि जिनविजय ने प्रो० अभ्यंकर के मत के विपरीत हरिभद्र को शंकराचार्य का पूर्ववर्ती माना है। उनका कथन है कि यदि शंकराचार्य हरिभद्र से पहले विद्यमान होते तो उनका उल्लेख हरिभद्र ने अपने ग्रन्थों में अवश्य किया होता क्योंकि हरिभद्र ने अपने पूर्ववर्ती प्रायः सभी दार्शनिकों का उल्लेख किया है। शंकराचार्य ने जैनदर्शन के स्याद्वादसिद्धांत व सप्तभंगीन्याय का खण्डन किया है। यदि शंकराचार्य हरिभद्र से पूर्व हुए होते तो हरिभद्र उनका नामोल्लेख अथवा उनके खंडन के तर्कों का प्रत्युत्तर अवश्य देते। इससे स्पष्ट है कि हरिभद्रसूरि शंकराचार्य से पहले हुए हैं और शंकराचार्य हरिभद्रसूरि के स्वर्गगमन के पश्चात् प्रादुर्भूत हुए। ___ आ० हरिभद्र को सिद्धर्षि का गुरु मानकर उन्हें ६वीं-१०वीं शती तक ले जाने की मान्यता की आलोचना करते हुए मुनि जिनविजय जी लिखते हैं कि वास्तव में आ० हरिभद्र सिद्धर्षि के साक्षात् गुरु नहीं थे, परम्परा-गुरु थे। मुनि जिनविजय ने 'हरिभद्रसूरि का समय निर्णय' नामक लेख में कुवलयमालाकहा के प्रशस्ति पद्य के अनागत' शब्द के आधार पर यह निष्कर्ष निकाला है कि हरिभद्रकृत 'ललितविस्तरावृत्ति' के अध्ययन से सिद्धर्षि का कुवासना विष दूर हुआ था। सिद्धर्षि के विचार से हरिभद्र का ललितविस्तरा की रचना का कार्य भविष्यकालीन उपकार की दृष्टि से है। इसी कारण सिद्धर्षि ने उस वृत्ति के रचयिता को अपना धर्मबोधकगुरु मान लिया। उक्त मतों की समीक्षा
आ० हरिभद्र का समय वि० सं० ५८५ होने की परम्परागत मान्यता कथमपि स्वीकार्य नहीं की जा सकती, क्योंकि इसे मानने में ७वीं शती के धर्मकीर्ति, भर्तृहरि, धर्मपाल, कुमारिल आदि आचार्यों का आo हरिभद्र द्वारा उल्लेख किया जाना आपत्तिजनक प्रतीत होता है।
इसी प्रकार आ० हरिभद्र को अभ्यंकर द्वारा. शंकराचार्य का पश्चात्वर्ती मानना भी अनेक युक्तियों के आलोक में स्वतः खण्डित हो जाता है। यदि आ० हरिभद्र शंकराचार्य के पश्चात्वर्ती होते तो वे निश्चय ही उनके सिद्धान्तों की समीक्षा अपने ग्रन्थों में करते। __ आ० हरिभद्र, सिद्धर्षि और उद्योतनसूरि इन दोनों में से किसी एक के ही साक्षात् गुरु हो सकते हैं, दोनों के कदापि नहीं। मुनि जिनविजयजी ने अनेक युक्तियों के आधार पर आ० हरिभद्र को उद्योतनसूरि का साक्षात् गुरु और सिद्धर्षि का परम्परागुरु सिद्ध किया है, यह उचित भी प्रतीत होता है। सिद्धर्षि ने
द्र को धर्मबोधक गरु माना है, क्योंकि हरिभद्र की ललितविस्तरा को पढ कर सिद्धर्षि की कुवासना दूर हुई थी। इसप्रकार प्रो० अभ्यंकर और हर्मन जैकोबी द्वारा आ० हरिभद्र को सिद्धर्षि का साक्षात् गुरु मानने की मान्यता निरस्त हो जाती है। __डॉ० नेमिचन्द्र शास्त्री द्वारा आ० हरिभद्र को मल्लवादी (ई० ८२६) का परवर्ती बताया जाना भी परीक्षणीय है। वस्तुतः मल्लवादी नाम के दो विद्वान् हुए हैं। आo हरिभद्र ने 'अनेकान्तजयपताका' में द्वादशारनयचक्र' के प्रणेता जिस मल्लवादी का स्मरण किया है, वह ई० चौथी शती में हए दसरे
१. आह च कुमारिलादि....। - शास्त्रवार्तासमुच्चय, श्लोकांक, २६६, स्वो० टी० २. आचार्यहरिभद्रस्य समयनिर्णयः, जैनसाहित्यसंशोधक ग्रन्थमाला, अंक १, पृ० ६. १० ३. वही
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