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पातञ्जल एवं जैनयोग-साधना-पद्धति तथा सम्बन्धित साहित्य
हरिभद्रसूरि का जीवन लगभग ६० वर्षों का था । अतः उनका जीवनकाल ई० सन् ७२० से ई० ८१० के मध्य होना चाहिये।
डॉ० नेमिचन्द्र शास्त्री के अनुसार उद्योतनसूरि ने 'कुवलयमालाकहा' में हरिभद्रसूरि को अपना सिद्धान्त-गुरु माना है और उनकी प्रख्यात प्राकृत कृति 'समराइच्चकहा' का बड़े गौरव के साथ स्मरण किया है। इससे प्रतीत होता है कि हरिभद्रसूरि उद्योतनसूरि के समकालीन हैं। उद्योतनसूरि ने 'कुवलयमालाकहा' की समाप्ति का समय एक दिन न्यून शक् सवंत् ७०० अर्थात् शक् संवत् ७०० की चैत्र कृष्ण चतुर्दशी लिखा है। इससे स्पष्ट होता है कि हरिभद्रसूरि शक संवत् ७०० अर्थात् ई० ७७८ (वि० सं० ८३५) तक विद्यमान थे। ___ डॉ० शास्त्री ने जयन्त की 'न्यायमंजरी' तथा हरिभद्रसूरि के 'षड्दर्शनसमुच्चय' ग्रन्थ में प्राप्त श्लोकों के आधार पर दोनों को समकालीन बताया है जो तर्कसंगत नहीं है। वस्तुतः जयन्तभट्ट तथा हरिभद्रसूरि दोनों ने ही उक्त श्लोक किसी तृतीय ग्रन्थकार त्रिलोचन (वाचस्पति मिश्र के गुरु) के ग्रन्थ से लिए हैं। डा० शास्त्री ने कुछ अन्य महत्वपूर्ण तथ्यों पर ध्यान आकृष्ट किया है। हरिभद्रसूरि ने अनेकान्तजयपताका की टीका में सटीक नयचक्र के रचयिता मल्लवादी का निर्देश किया है। डॉ० नेमिचन्द्र शास्त्री के अनुसार हरिभद्रसूरि मल्लवादी के समसामयिक विद्वान् थे। मल्लवादी का समय पहले भ्रान्तिवश वीर निर्वाण संवत् ८८४ अर्थात् वि० सं० ४१४ माना जाता रहा। बाद में वीर निर्वाण संवत् के स्थान पर वीर विक्रम संवत्सर पाठ को मान्य किया गया और मल्लवादी का समय वि० सं०८८४ अर्थात् ८२७ ई० माना जाने लगा।
उपर्युक्त चर्चा के प्रकाश में कहा जा सकता है कि हरिभद्रसूरि ७०० ई० से लेकर ८२७ ई० के कुछ समय पश्चात् तक जीवित रहे। मल्लवादी की तिथि को ध्यान में रखते हुए हरिभद्रसूरि का समय ७३० ई० से लेकर ८३० ई० के लगभग माना जा सकता है। इससे उद्योतनसूरि के साथ उनके गुरु-शिष्य सम्बन्ध का भी निर्वाह हो जाता है।
मुनि जिनविजय (ई० ८वीं शती०)
मुनि जिनविजय के मतानुसार हरिभद्रसूरि के समय की पूर्वसीमा उनके ग्रन्थों में उल्लिखित अन्य ग्रन्थकारों के समय से भी निर्धारित की जा सकती है। उन्होंने हरिभद्रसूरि के समय की पूर्वसीमा निर्धारित करने के लिए उन्हीं के द्वारा उल्लिखित ३२ ग्रन्थकारों और २ ग्रन्थों (वासवदत्ता और प्रियदर्शना) की नामावली तैयार की है। इसमें समय की दृष्टि से प्रमुख आचार्य हैं - धर्मकीर्ति (६००-६५०ई०), भर्तृहरि
१. सिद्धिविनिश्चय टीका, प्रस्तावना, पृ०५१-५२ २. सो सिद्धतेण गुरू जुत्ती-सत्थेहि जस्स हरिभद्दो ।
बहु-सत्थ-गथ-वित्थर-पत्थारिय-पयड-सव्वत्थो ।। - कुवलयमालाकहा, पृ०२८२, अनुच्छेद ४३० जो इच्छइ भवविरहं भवविरहं को ण वंदए सुयणो । समय-सय-सत्थ-गुरुणो समरमियंकाकहा जस्स ।। - वही, पृ० ४ अनुच्छेद ६ सग-काले वोलीणे वरिसाण सएहिं सत्तहिं गएहिं । एग-दिणेणूणेहिं रइया अवरह-वेलाए ।। - वही, पृ० २८३. अनुच्छेद ४३० हरिभद्र के प्राकृत कथा-साहित्य का आलोचनात्मक परिशीलन, पृ०४६ (क) उक्त च वादिमुख्येन-मल्लवादिना सम्मतौ-स्वपरेत्यादि । - अनेकान्तजयपताका, स्वो० वृ० पृ०५८
(ख) उक्तं च वादिमुख्येन मल्लवादिना सम्मतौ किमित्याह - न विषयग्रहण ....| - वही पृ०६६ ७. हरिभद्र के प्राकृत कथा-साहित्य का आलोचनात्मक परिशीलन, पृ० ४६
पूर्वाचार्य धर्मपाल-धर्मकीर्त्यादिभिः .....1- अनेकान्तजयपताका, पृ० ५७ ६. शब्दार्थतत्त्वविदः भर्तृहरिः ..... 1 - वही, पृ० ३६६
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