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________________ 16 पातञ्जलयोग एवं जैनयोग का तुलनात्मक अध्ययन ६-१०वीं शती वि० सं० द्वितीय मत के समर्थक प्रो० हर्मन जैकोबी तथा प्रो० के० वी० अभ्यंकर हैं। इनके मत में हरिभद्रसूरि की स्थिति नर्वी-दसवीं शती है। प्रो० जैकोबी द्वारा लिखी गई समराइच्चकहा की प्रस्तावना के आधार पर हरिभद्रसूरि सिद्धर्षि के साक्षात् गुरु थे।' इसके प्रमाणस्वरूप उन्होने उपमितिभवप्रपंचकथा के प्रशस्ति पद्य प्रस्तुत किये हैं जिनमें सिद्धर्षि ने हरिभद्रसूरि को अपना गुरु स्वीकार किया है। इसके आधार पर जैकोबी ने हरिभद्रसूरि का समय वि० की १०वीं शताब्दी सिद्ध करने का प्रयास किया है। प्रो० अभ्यंकर ने हरिभद्रसूरि पर शंकराचार्य का प्रभाव बताते हुए उन्हें शंकराचार्य का पश्चात्वर्ती माना है। सामान्यतः सभी विद्वान शंकराचार्य का समय ७८.ई० से १२० ई. मानते हैं। प्रो० अभ्यंकर : हरिभद्रसूरि को सिद्धर्षि का साक्षात् गुरु मानने के पक्ष में हैं। वे हरिभद्रसूरि का समय शंकराचार्य और सिद्धर्षि के मध्यवर्ती अर्थात् वि० सं० ८०० से १५० सिद्ध करते हैं।' ई०५-६ वीं शती __पं० महेन्द्रकुमार के मत में हरिभद्रसूरि का समय ई०७२० से ८१० है, जबकि डॉ० नेमिचन्द्र शास्त्री उनका समय ई० ७३० से ८३० मानते हैं। इसप्रकार दोनों विद्वान् परस्पर मतभेद रखते हुए भी इस बात पर सहमत हैं कि आ० हरिभद्र ८वीं-६वीं शती में हए। पं० महेन्द्रकुमार ने कुछ अन्य तथ्यों पर प्रकाश डालते हुए कहा है कि हरिभद्रसूरि के 'षड्दर्शनसमुच्चय" में कुछ ऐसे श्लोक मिलते हैं जो जयन्तभट्ट की न्यायमंजरी में बिल्कुल वैसे ही दिये गये हैं। जयन्त की न्यायमंजरी का रचनाकाल ई० सन् ८०० के लगभग माना जाता है। इस समय में हरिभद्रसूरि अवश्य रहे होंगे। इसके अतिरिक्त अकंलकदेव का प्रभाव भी हरिभद्रसूरि के ग्रंथों में स्पष्ट दृष्टिगोचर होता है। बहुत सम्भव है कि अकलंकदेव व हरिभद्रसूरि दोनों समकालीन रहे हों। अकलंक देव का समय ई०७२०-७८० है। न्यायमंजरी के उपरोक्त श्लोक को जयन्तभट्ट की न्यायमंजरी का मानने पर हरिभद्रसूरि के समय की उत्तरसीमा को ई० सन ८१० तक बढ़ाना पड़ेगा। तभी वे जयन्तभट्ट की न्यायमंजरी को देख सके होंगे। १. समराइच्चकहा, (संपा०) जैकोबी, प्रस्तावना, पृ० १-३ आचार्यहरिभद्रो मे, धर्मबोधकरो गुरुः । प्रस्तावे भावतो हन्त, स एवाद्ये निवेदितः ।। विषं विनिर्धूय कुवासनामयं, व्यचीचरद्यः कृपया मदाशये। अचिन्त्यवीर्येण सुवासनासुधां, नमोऽस्तु तस्मै हरिभद्रसूरये ।। अनागतं परिज्ञाय, चैत्यवंदनसंश्रया। मदर्थव कृता येन, वृत्तिललितविस्तरा।। - उपमितिभवप्रपंचकथा, प्रशस्तिपद्य, १५-१७ यद्यपि प्रशस्तिपद्य में संवत् का नामोल्लेख नहीं हुआ है. तथापि ज्योतिषगणना के आधार पर उक्त तिथि वि० सं० पहली मई ६०६ सिद्ध होती है। विंशतिविंशिका, (प्रस्तावना) के० वी० अभ्यंकर, पृ०७ द्रष्टव्य : सिद्धिविनिश्चय, न्यायकुमुदचन्द्र तथा अकलंकग्रंथत्रय की प्रस्तावना । हरिभद्र के प्राकृत कथासाहित्य का आलोचनात्मक परिशीलन, पृ०४६ रोलम्बगवलव्यालतमालमलिनत्विषः । वृष्टिं व्यभिचरन्तीह नैवं प्रायाः पयोमुचः ।। - षड्दर्शनसमुच्चय, गा० २० गम्भीरगर्जितारम्भनिर्भिन्नगिरिगहराः । रोलम्चगवलव्यालतमालमलिनत्विषः ।। त्वंगत्तडिल्लतासंगपिशंगोतुंगविग्रहाः । वृष्टिं व्यभिचरन्तीह नैव प्रायाः पयोमुचः ।। - न्यायमंजरी, पृ० ११७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001981
Book TitlePatanjalyoga evam Jainyoga ka Tulnatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAruna Anand
PublisherB L Institute of Indology
Publication Year2002
Total Pages350
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size25 MB
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