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________________ पातञ्जल एवं जैनयोग-साधना-पद्धति तथा सम्बन्धित साहित्य 15 वि० सं० छठी शती वि० सं० ५८५ में हरिभद्रसूरि के स्वर्गस्थ होने की मान्यता को अनेक पुरातत्त्ववेत्ताओं का समर्थन प्राप्त है। इस का समर्थन अन्य अनेक विद्वानों के साथ मुनि जयसुन्दरविजय ने भी किया है। अपने समर्थन में उन्होंने निम्नलिखित प्रमाण प्रस्तुत किये हैं - ___ मेरुतुंगाचार्य ने 'विचारश्रेणि' नामक ग्रंथ में 'उक्तं च' कहकर एक प्राचीन प्राकृत गाथा उद्धृत की है, जिसके अनुसार वि० सं० ५८५ में हरिभद्रसूरि का स्वर्गवास हुआ था। मेरुतुंगाचार्य की उक्त गाथा को प्रद्युम्नसूरि ने अपने 'विचारसारप्रकरण' में और समयसुन्दरगणि ने स्वसंगृहीत 'गाथासहस्री' नामक प्रबन्ध में उद्धृत किया है। इस आशय का समर्थन कुलमंडनसूरि ने 'विचारामृतसंग्रह'५ में और धर्मसुन्दर ने 'तपागच्छगर्वावली में किया है। मनि सन्दरसरि ने संवत १४६६ में स्वरचित तपागच्छगर्वावली मेंहरिभद्रसूरि को मानदेवसूरि का मित्र बताया है। मानदेव का समय पट्टावलियों की गणना और मान्यता के अनुसार वि० की छठी शती माना जाता है। हरिभद्रसूरि ने लघुक्षेत्रसमासवृत्ति के अन्तिम श्लोकों में वि० सं० ५८० में इसके समाप्त होने का निरूपण किया है। मुनिजयसुन्दरविजय जी ने उक्त चर्चा को महत्व देते हुए इनका समय विक्रम की छठी शती स्वीकार किया है। इस प्रकार उपरोक्त सभी ग्रन्थकारों के अनुसार हरिभद्रसूरि का सत्ता-समय विक्रम की छठी शताब्दी और स्वर्गवास का समय सं०५८५ (ई०सं०५२६) है। इसे मानने में कई आपत्तियाँ हैं, जिनमें मुख्य इस प्रकार हैं - हरिभद्रसूरि ने अपने ग्रन्थों में धर्मकीर्ति (६००-६५०ई०), भर्तृहरि (६००-६५० ई०), धर्मपाल (६३५ई०), कुमारिल (६२०-६८०). शुभगुप्त (६४०-७००ई०) और शान्तरक्षित (७०५-७३२ई०) आदि आचार्यों का उल्लेख किया है। वि० सं० ५८५ में हरिभद्रसूरि का स्वर्गवास मानने पर इन आचार्यों के उल्लेख की संगति नहीं बैठ पाती। अतः हरिभद्रसूरि का समय ई० सन् ७०० के बाद होना चाहिए। १. शास्त्रवार्तासमुच्चय एवं स्याद्वादकल्पलता, स्तबक १, भूमिका, पृ०८-६ २. श्रीवीरमोक्षाद दशभिः शतैः पंचपंचाशदधिकैः(१०५५) श्रीहरिभद्रसूरेः स्वर्गः । उक्तं च - पंचसए पणसीए विक्कमकालाउ झत्ति अत्थमिओ। हरिभद्दसूरिसूरो भवियाणं दिसउ कल्लाणं ।। - विचारश्रेणि (उद्धृत : जैनसाहित्य संशोधक, अंक १ भा० १) विचारसारप्रकरण, गा०५३२ ४. गाथासहस्री. (उदधृत : जैनसाहित्य संशोधक, अंक १ भा० १) श्री वीरनिर्वाणात् सहस्रवर्षे पूर्वश्रुतव्यवच्छिन्नम् । श्री हरिभद्रसूरयस्तदनु पंचपंचाशतावर्षदिवं प्राप्ताः ||- विचारामृत संग्रह (उद्धृत : जैनसाहित्य संशोधक, अंक १ भा०१) ६. श्री वीरात पंचपंचाशदधिकसहस्रवर्षे विक्रमात् पंचाशीत्यधिकपंचशतवर्षे याकिनीसूनुः श्रीहरिभद्रसूरिः स्वर्गभाक् । -धर्मसागर, तपागच्छगुर्वावली ७. (क) अभूद गुरुः श्री हरिभद्रमित्रं, श्रीमानदेवः पुनरेव सूरिः । यो मान्धतो विस्मृतसूरिमन्त्रं, लेभेऽम्बिकाऽऽस्यात्तपसोज्जयते ।। - गुर्वावली. श्रीयशोविजय जैनग्रन्थमाला, पृ०४ (ख) विद्यासमुद्रहरिभद्रमुनीन्द्रमित्रं सूरिर्बभूव पुनरेव हि मानदेवः । मान्द्यात् प्रयातमपि योऽनघसूरिमन्त्रं लेभेऽम्बिकामुखगिरा तपसोज्जयन्ते ।। -- अञ्चलपौर्णमिकगच्छपट्टावली (उद्धृत : धर्मसंग्रहणी, जैन पुस्तकोद्धार संस्था, प्रस्तावना,पत्र २८) ८. दिन्नो हरिभद्देण वि, विज्जाहरवायणाए तया। चिरमित्तपीइतोसा, दिन्नो हरिभददसूरिणा विइओ । विज्जाहरसाहिवो, मंतो सिरिमाणदेवस्स ।। - बृहदगच्छीयसूरिविद्याप्रशस्ति, पृ०४४३-४४ लघुक्षेत्रसमासस्य वृत्तिरेषा समासतः । रचिताऽबुधबोधार्थ श्रीहरिभद्रसूरिभिः ।। पंचाशीतिकवर्षे विक्रमतो व्रजति शुक्लपञ्चम्याम् । शुक्ल(क्र)स्य शुक्रवारे पुष्ये शस्ये च नक्षत्रे।। - लघुक्षेत्रसमासवृत्ति, १-२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001981
Book TitlePatanjalyoga evam Jainyoga ka Tulnatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAruna Anand
PublisherB L Institute of Indology
Publication Year2002
Total Pages350
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size25 MB
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