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________________ 272 पातञ्जलयोग एवं जैनयोग का तुलनात्मक अध्ययन योग : भेद महर्षि पतञ्जलि ने चित्तवृत्तिनिरोध रूप योग के दो भेद किए हैं - सम्प्रज्ञात और असम्प्रज्ञात। दूसरे शब्दों में इन्हें क्रम से सबीज (सालम्बन) और निर्बीज (निरालम्बन) योग/समाधि भी कहा गया है। चित्त की एकाग्रावस्था में ध्येय वस्तु का ज्ञान बना रहता है और मन को समाहित करने के लिए किसी न किसी आलम्बन की आवश्यकता होती है। चित्त की उक्त अवस्था सम्प्रज्ञातयोग/समाधि कहलाती है। सम्प्रज्ञातयोग/समाधि के चार भेद किए गए हैं -वितर्कानगत, विचारानगत, आनन्दानगत और अस्मितानगत। ___जब चित्त की समस्त वृत्तियों का पूर्णरूपेण निरोध हो जाता है तब चित्त की उस निरुद्धावस्था को असम्प्रज्ञातयोग/समाधि कहा जाता है। उसमें साधक को ध्याता, ध्यान, ध्येय रूप त्रिपुटी का भान नहीं होता और कुछ ज्ञेय भी नहीं रहता। चित्त की यह अवस्था शांत एवं संस्काररहित होती है। असम्प्रज्ञातयोग के भी भवंप्रत्यय और उपायप्रत्यय दो भेद बताए गए हैं। भवप्रत्यय तो पूर्व जन्म के संस्कारों से प्राप्त होता है अतः उपायप्रत्यय नामक असम्प्रज्ञातयोग (समाधि) ही वास्तविक योग (समाधि) है। श्रद्धा, वीर्य, स्मृति, समाधि और प्रज्ञा आदि उसकी प्राप्ति के उपाय हैं। पतञ्जलि द्वारा निरूपित उक्त योग-भेद आध्यात्मिक विकास की क्रमिकता को सचित करते हैं। __ आ० हरिभद्र ने भी आध्यात्मिक योग-साधना के क्रमिक सोपानों को संकेतित करने के लिए योग के विभिन्न भेद किए हैं। योगदृष्टिसमुच्चय में निश्चय एवं व्यवहार नय की दृष्टि से योग को दो भागों में तथा साधक द्वारा किए जाने वाले धार्मिकव्यापारों के आधार पर इच्छा, शास्त्र एवं सामर्थ्य आदि तीन भागों में विभक्त किया गया है। योगबिन्दु में योग के अध्यात्म, भावना, ध्यान, समता और वृत्तिसंक्षय तथा योगविंशिका में स्थान, उर्ण, वर्ण, आलम्बन और अनालम्बन आदि पांच भेद किए गए हैं। योग-मार्ग में साधक की उन्नति के आधार पर स्थानादि पांच योग-भेदों के अनेक भेद-प्रभेदों का निरूपण भी हुआ है। स्थानादि पांच योग-भेदों का बाह्य एवं आभ्यन्तर व्यापार से सम्बन्ध बताने के लिए उनको कर्मयोग एवं ज्ञानयोग में भी विभाजित किया गया है। योग-साधना का यथार्थ प्रारम्भ सम्यग्दृष्टि से होता है। जब जीव पर से अनादिकालीन मिथ्यात्व का आवरण हट जाता है अर्थात् उसका ग्रन्थिभेद हो जाता है तब साधक मोक्ष-मार्ग की विकसित अवस्थाओं पर आरोहण करने में समर्थ होता है। इसीलिए आ० हरिभद्र ने इच्छादि त्रिविध, अध्यात्मादि पांच तथा स्थानादि पांच योग-भेदों को जैन-परम्परा के गुणस्थानक्रम से जोड़ने का प्रयास किया है। उन्होंने स्पष्ट कहा है कि इन साधनों का अभ्यास देशविरति, सर्वविरति अथवा उससे उच्च अवस्था वाला जीव ही कर सकता है। उन्होंने ध्यान की विभिन्न अवस्थाओं का सम्बन्ध गुणस्थान की विभिन्न अवस्थाओं से करने का प्रयास भी किया है। आ० हरिभद्र ने उक्त योग-भेदों की पतञ्जलिकृत योग-भेदों से तुलना करते हुए साम्य दर्शाने का प्रयत्न भी किया है। उन्होंने अध्यात्मादि पांच योग-भेदो में से प्रथम चार को पतञ्जलि के सम्प्रज्ञातयोग (समाधि) तथा अन्तिम भेद वृत्तिसंक्षय को असम्प्रज्ञातयोग (समाधि) के सदृश बताया है जबकि उपा० यशोविजय ने वृत्तिसंक्षय नामक अन्तिम योगभेद में ही सम्प्रज्ञात और असम्प्रज्ञात दोनों को समाविष्ट कर दिया है। जैन-परम्परागत स्थानादि पांच योग-भेदों में 'स्थान' नामक प्रथम भेद यद्यपि पतञ्जलि के तृतीय योगांग 'आसन' के सदृश है तथापि अपेक्षाकृत अधिक व्यापक दृष्टिकोण रखता है। 'उर्ण' एवं 'वर्ण पतञ्जलि के जप' के सदृश हैं। 'आलम्बन' सप्तम योगांग 'ध्यान' से तथा 'अनालम्बन' आठवें योगांग समाधि से साम्य रखता है। जिस क्रम से इन स्थानादि योगों की सिद्धि होती है, तदनुरूप उनके भेद-प्रभेद करके आ० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001981
Book TitlePatanjalyoga evam Jainyoga ka Tulnatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAruna Anand
PublisherB L Institute of Indology
Publication Year2002
Total Pages350
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size25 MB
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