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________________ पातञ्जलयोग एवं जैनयोग में परस्पर साम्य-वैषम्य एवं वैशिष्ट्य 273 हरिभद्र ने व्यापक दृष्टिकोण का परिचय दिया है। उपा० यशोविजय ने उनका अनुकरण करते हुए उनके अभिमत को अधिक स्पष्ट रीति से समझाने का प्रयास किया है। उक्त योग-भेदों के निरूपण से यह परिलक्षित होता है कि साधना की निम्नकोटि में ही बाह्य क्रियाकाण्ड कुछ महत्व रखते हैं | साधना की उच्च कोटि में ध्यान की उत्तरोत्तर अवस्था पल्लवित होती जाती है और समस्त क्रियाकाण्ड स्वतः छुट जाते हैं। योग-भेदों का विविध परिप्रेक्ष्यों में निरूपण कर आ० हरिभद्र ने यह संकेतित करने का प्रयास किया है कि भारतीय योग-साधना के सोपान विविध रूपों में वर्णित किए जा सकते हैं। योग के अधिकारी ___ पातञ्जल एवं जैन दोनों परम्पराओं के अनुसार मोक्ष-प्राप्ति के लिए कर्मभूमि एवं मनुष्य योनि में उत्पन्न होना अनिवार्य है। जहाँ पातञ्जलयोगसूत्र में स्पष्ट रूप से योग-साधना को सभी मनुष्यों का धर्म स्वीकार किया गया है वहाँ जैन-परम्परा भी जैनसिद्धान्त और उसकी साधना को सभी मनुष्यों के लिए समान रूप से उपयोगी घोषित करती है। परन्तु वहाँ मोक्ष की प्राप्ति का अधिकार केवल भव्य जीव को ही प्रदान किया गया है, अभव्य जीवों को नहीं। वस्तुतः जैन-परम्परा में भव्यत्व और अभव्यत्व की कल्पना मनष्य की स्वाभाविक योग्यता को देखकर ही की गई है। जैसे मूंग में कोई दाना ऐसा होता है जिसे 'कोरडु' कहते हैं। इस 'कोरडू का ऐसा स्वभाव है कि चाहे कितना भी प्रयत्न कर लिया जाए परन्तु वह पकता नहीं है। इसीप्रकार जो अभव्यजीव होता है, उसमें मुक्ति होने योग्य परिणामों की सम्भावना नहीं होती। उक्त तथ्य जैन-परम्परा का मौलिक चिन्तन है, जो अन्य परम्पराओं से अपना वैशिष्ट्य व्यक्त करता है। योगबिन्दु आदि ग्रन्थों में चरमावर्ती और अचरमावर्ती जीवों के रूप में योग के अधिकारियों एवं अनधिकारियों पर जो प्रकाश डाला गया है वह आ० हरिभद्र का अपना मौलिक चिन्तन है, जबकि वह जैन-परम्परा के चिरन्तन सिद्धान्तों पर ही आधारित है। सम्भवतः उक्त विभाजन द्वारा आ० हरिभद्र पाठकों को कर्मग्रन्थों के पारिभाषिक शब्दों जैसे - चरमपुदगलावर्त आदि का ज्ञान और योग-साधना को प्राचीन जैनकर्म-सिद्धान्त की परम्परा से सम्बद्ध कराना चाहते थे। __ आ० हरिभद्र ने चरमावर्ती जीवों के रूप में जो योगाधिकारियों के लक्षण बताए हैं उनसे मिलता-जुलता वर्णन व्यासभाष्य में भी देखने को मिलता है, जहाँ मोक्ष-मार्ग की चर्चा के श्रवण भात्र से शरीर में होने वाले रोमांच एवं अश्रुपात को योगाधिकारी का अनुमापक चिहन बताया गया है। परन्तु जैन-परम्परा का वर्णन अपेक्षाकृत अधिक मनोवैज्ञानिक एवं कर्मों की तरतमता पर आधारित है। योगाधिकारियों के भेदों के विषय में पातञ्जलयोग एवं जैनयोग दोनों की दृष्टि समान है। साधना-क्रम में क्रमिक प्रगति व अपेक्षित तरतमता के आधार पर आ० हरिभद्र द्वारा अपुनर्बन्धक, सम्यग्दृष्टि और चारित्री के भेद से किया गया अधिकारी-विभाजन पातञ्जलयोग के अधम, मध्यम एवं उत्तम - तीन श्रेणियों में किए गए विभाजन के अनुरूप है, जबकि उनके लक्षण एवं स्वरूप-वर्णन में जैन-परम्परा की मौलिकता सुरक्षित है। योगी-भेद योगी के विविध प्रकारों का निरूपण भी दोनों परम्पराओं में साधना-मार्ग में प्राप्त उपलब्धि के तारतम्य के आधार पर किया गया है। ऐसा प्रतीत होता है कि आ० हरिभद्र ने पातञ्जलयोगसूत्र में वर्णित चतुर्विध योगियों के निरूपण से प्रभावित होकर ही अपने ग्रन्थों में चार प्रकार के योगियों का वर्णन किया है। परन्तु यहाँ यह उल्लेखनीय है कि आ० हरिभद्र ने योगियों की परिभाषा की जो संघटना की है वह Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001981
Book TitlePatanjalyoga evam Jainyoga ka Tulnatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAruna Anand
PublisherB L Institute of Indology
Publication Year2002
Total Pages350
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size25 MB
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