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________________ पातञ्जलयोग एवं जैनयोग में परस्पर साम्य-वैषम्य एवं वैशिष्ट्य 271 योग : लक्षण महर्षि पतञ्जलि ने चित्तवृत्तियों के निरोध को योग की संज्ञा दी है, जबकि प्राचीन जैनागमों में मन, वचन और काय की प्रवृत्तियों को 'योग' कहा गया है। जैनागमों में आध्यात्मिक साधना के सन्दर्भ में 'योग' शब्द की अपेक्षा 'संवर' शब्द अधिक प्रयुक्त हुआ है। समाधि, तप, ध्यान आदि शब्दों का उपयोग 'योग' के समान अर्थ में हुआ है। मोक्ष के साधन के रूप में जैन-परम्परा में रत्नत्रय (सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र) को ही सर्वोत्तम उपाय माना गया है। आ० हरिभद्र ने आगमिक शैली को परिवर्तित कर मोक्ष से योजन कराने वाले सभी विशुद्ध धर्मव्यापारों को योग' की संज्ञा दी है। उनके इस व्यापक लक्षण में सभी परम्पराओं में प्रचलित लक्षणों का समावेश होजाता है। आ० हरिभद्र की यह विशेषता है कि उन्होंने 'सर्वविशुद्ध धर्मव्यापार' रूप योग-लक्षण में पतञ्जलि के चित्तवृत्तिनिरोध रूप योग को समाविष्ट करके तुलनात्मक दृष्टि का परिचय दिया है। उनके इस व्यापक लक्षण की एक विशेषता यह भी है कि जहाँ आगमिक परम्परा में योग का अर्थ मन, वचन, काय के व्यापार रूप में ही सीमित था, वहाँ उक्त लक्षण से जैनेतर-परम्परा के योगदर्शन में स्वीकृत योग का जैन-परम्परा में प्रवेश हो गया। इसके अतिरिक्त आ० हरिभद्र के उक्त व्यापक योग-लक्षण में जैन-परम्परा की आगमोक्त रत्नत्रय-साधना और उसकी अन्य सहायक अवान्तर क्रियाओं का भी समावेश हो गया है। इतना ही नहीं आ० हरिभद्र ने जैन आगमिक परम्परा के योग सम्बन्धी सांसारिक प्रवृत्तिपरक लक्षण का आध्यात्मिक योग से सम्बन्ध बताने के लिए समस्त कायिक, वाचिक एवं मानसिक व्यापारों के अयोग (निरोध) को मोक्ष साधक योग के रूप में निरूपण किया है। निवृत्तिमार्गी जैन-परम्परा को ध्यान में रखते हुए यह प्रतिपादन भी किया है कि सर्वसंन्यास (मन, वचन, काय की समस्त प्रवृत्तियों का त्याग) ही योग का लक्षण है। हरिभद्र द्वारा निरूपित उक्त योग-लक्षण से ऐसा प्रतीत होता है कि आ० हरिभद्र की दृष्टि पातञ्जलयोग में प्रतिपादित चित्तवृत्तिनिरोध रूप योग तथा जैन-परम्परा में समर्थित अयोग व सर्वसंन्यास रूप योग, दोनों का समन्वित रूप प्रस्तुत करने की रही है। चित्तवृत्तिनिरोध रूप योग में सम्प्रज्ञातयोग और असम्प्रज्ञातयोग दोनों समाहित हैं। असम्प्रज्ञातयोग में सर्ववृत्तिनिरोध हो जाता है। आo हरिभद्र के 'सर्वसंन्यासयोग' पद से भी यही अभिप्रेत है। उक्त तथ्यों से आ० हरिभद्र की समन्वयवादिता स्पष्ट झलकती है। __ आ० शुभचन्द्र एवं हेमचन्द्र ने जैन-परम्परा सम्मत रत्नत्रय को मोक्ष के हेतु रूप में स्वीकार किया है। वस्तुतः 'रत्नत्रय' का स्वरूप इतना व्यापक है कि उसमें सभी धार्मिक व्यापार समाविष्ट हो जाते हैं। उपा० यशोविजय ने स्वसिद्धान्त सम्मत योग-लक्षण का पूर्णतः समर्थन किया है। उन्होंने हरिभद्रसरि द्वारा निरूपित योग लक्षण को तो स्वीकार किया, साथ ही उसे और अधिक विस्तृत करते हुए समिति, गप्ति आदि धर्मव्यापारों को भी योग माना। इतना ही नहीं उन्होंने पतञ्जलि द्वारा प्ररूपित योग-लक्षण पर भी अपनी तार्किक दृष्टि डाली तथा उस पर समुचित उहापोह किया। यह उनका विशेष योगदान कहा जाएगा। उन्होंने अपने द्वात्रिंशदद्वात्रिंशिका नामक ग्रन्थ में पतञ्जलि के.योग-लक्षण पर विचार करते हुए उसमें दोष दिखाने का प्रयास किया है। पातञ्जलयोगसूत्र पर वृत्ति लिखते समय उन्होंने 'चित्तवृत्ति का निरोध योग है' इस लक्षण को अधूरा बताया है। उनके अनुसार क्लिष्ट चित्तवृतियों के निरोध को योग कहा जाना चाहिये । योगदर्शन सांख्यमतानुरूप पुरुष को कूटरथ नित्य मानता है। कूटस्थ नित्य पुरुष में चित्तवृत्तिनिरोध रूप परिणमन कैसे सम्भव हो सकता है, इस तथ्य पर भी उन्होंने ध्यान आकृष्ट किया प्रमुख जैनाचार्यों द्वारा निरूपित उक्त योग-लक्षण यद्यपि जैनेतर परम्पराओं से भिन्न प्रतीत होते हैं परन्तु सूक्ष्मदृष्टि से विचार करने पर उनमें ऐक्य दिखाई देता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001981
Book TitlePatanjalyoga evam Jainyoga ka Tulnatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAruna Anand
PublisherB L Institute of Indology
Publication Year2002
Total Pages350
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size25 MB
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