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________________ पातञ्जलयोग एवं जैनयोग का तुलनात्मक अध्ययन अतिचार युक्त होने पर भी गजांकुशन्याय' से अभ्यास काल में अदूषित ही माना जाता है। इसलिए, 'व्युत्थानचित्त' भी योग की प्रारम्भिक अवस्था में उपादेय है। अभ्यास में वृद्धि के साथ-साथ 'व्युत्थानचित्त' में साधक उन्नत अवस्थाओं को प्राप्त कर सकता है। 246 संक्षेप में आध्यात्मिक विकास की क्रमिकता पातञ्जल एवं जैन दोनों योग परम्पराओं में समान रूप से स्वीकृत है, केवल वर्णन-शैली में भेद दृष्टिगत होता है । पातञ्जलयोगसूत्र में आध्यात्मिक विकास के जिस क्रम को चित्तगत पांच भूमियों में प्रस्तुत किया गया है, वही क्रम जैन-परम्परा में चौदह गुणस्थानों, त्रिविध आत्मा, त्रिविध उपयोग, आठ दृष्टियों तथा मन की चार और पांच अवस्थाओं के रूप में निरूपित है। इनके द्वारा अविकास, विकास और पूर्णता रूप तीन मुख्य अवस्थाओं को सूचित किया गया है। जैन- परम्परागत गुणस्थान के साथ इनकी तुलना करने पर ज्ञात होता है कि पातञ्जलयोग के अविकासकालीन 'क्षिप्तचित्त' एवं 'मूढचित्त' प्रथमगुणस्थान तथा मिश्र अवस्था का सूचक 'विक्षिप्तचित्त' तृतीय गुणस्थान के सदृश है। विकासकालीन 'एकाग्रचित' चतुर्थ गुणस्थान से बारहवें गुणस्थान तक की अवस्थाओं तथा पूर्णता का सूचक निरुद्धचित्त' तेरहवें और चौदहवें गुणस्थान के समकक्ष प्रतीत होता है। इसीप्रकार जैनपरम्परा सम्मत त्रिविध आत्माओं में 'बहिरात्मा की स्थिति प्रथम तीन गुणस्थान तक, 'अन्तरात्मा' की स्थिति चौथे से बारहवें गुणस्थान तक तथा 'परमात्मा' की स्थिति तेरहवें और चौदहवें गुणस्थान में मानी गई है। त्रिविध उपयोग में 'अशुभयोग' की स्थिति प्रथम तीन गुणस्थान में, 'शुभोपयोग' की चौथे से छठे गुणस्थान में तथा शुद्धोपयोग की सातवें से बारहवें गुणस्थान तक समझी जाती है, जबकि १३वाँ व १४वाँ गुणस्थान शुद्धोपयोग का फल है। आ० हरिभद्र द्वारा निरूपित योग दृष्टियों में प्रथमचार दृष्टियाँ प्रथम गुणस्थान की, पांचवीं और छठी दृष्टि क्रमशः पांचवें और छठे गुणस्थान की सातवीं दृष्टि सातवें और आठवें गुणस्थान की तथाआठवीं दृष्टि नवें से चौदहवें गुणस्थान तक की अवस्था को द्योतित करती है। इसप्रकार आ० हरिभद्र द्वारा योग दृष्टियों को योग के आठ अंगों के समकक्ष मानना भी योग के आध्यात्मिक विकास की क्रमिकता को सूचित करता 1 आ० हेमचन्द्र द्वारा निरूपित मन की चार अवस्थाओं में 'विक्षिप्तमन' प्रथम गुणस्थान, 'यातायात- मन' मिश्र नामक तृतीय गुणस्थान, 'श्लिष्टमन' चतुर्थ गुणस्थान से बारहवें गुणस्थान तथा 'सुलीनमन' तेरहवें और चौदहवें गुणस्थान की अवस्था के सदृश प्रतीत होता है । पातञ्जलयोग सम्मत पांच प्रकार की चित्तगत भूमियों में से विक्षिप्तचित्त' 'यातायातमन' के 'एकाग्रचित्त' 'श्लिष्टमन' के तथा 'निरुद्धचित्त' 'सुलीनमन' के समकक्ष कहा जा सकता है। इसप्रकार स्पष्ट है कि पतञ्जलि के योगसूत्र में वर्णित चित्त की मूढ़ादि पांच अवस्थाओं और जैनपरम्परा में विवेचित आध्यात्मिक विकास की विभिन्न क्रमिक अवस्थाओं में कोई भेद नहीं है। केवल वर्णनशैली में भिन्नता है। यही कारण है कि उपा० यशोविजय ने पातञ्जलयोग सम्मत चित्तगत अवस्थाओं का जैन- परम्परानुकूल वर्णन कर साम्प्रदायिक भेद मिटाने का प्रयत्न किया है। १. २. हाथी का अंकुश के प्रहार से सम्यक् मार्ग पर चलना गजांकुशन्याय कहा जाता है। अध्यात्मसार, ७/२०/१२ षोडशक, १०/६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001981
Book TitlePatanjalyoga evam Jainyoga ka Tulnatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAruna Anand
PublisherB L Institute of Indology
Publication Year2002
Total Pages350
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size25 MB
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