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________________ आध्यात्मिक विकासक्रम 245 उपा० यशोविजय ने पातञ्जलयोगसूत्र में वर्णित चित्त की पांच अवस्थाओं का अपनी दृष्टि से स्पष्टीकरण किया है। उन्होंने चित्त की उन पांच अवस्थाओं का वर्णन किया है, जो पातञ्जलयोगसूत्र में वर्णित हैं। जैसे - १. क्षिप्त, २. मूढ़, ३. विक्षिप्त, ४. एकाग्र और ५. निरुद्ध ।' ये पांच प्रकार के चित्त क्रमशः अविकास की ओर बढ़ती हई अवस्थाओं के सूचक हैं। क्षिप्तचित्त' रजोगुण प्रधान चित्त है जो अध्यात्म से बहिर्मुख रहता है तथा कल्पित विषयों में और समक्ष उपस्थित हुए विषयों में रजोगुण से निवेशित (राग से अनुरक्त) सुख-दुःख से मिश्रित होता है। । तमोगुण की प्रधानता के कारण अज्ञान के आवरण से युक्त चित्त 'मूढ़चित्त' कहलाता है। तामसिक स्वभाव वाला होने से यह क्रोधादि कषायों से आविष्ट, धर्मविमुख, एवं लोक-विरुद्ध कार्यों में प्रवृत्त, तथा कृत्य-अकृत्य के विवेक से रहित होता है। __ सत्त्वगुण प्रधान 'विक्षिप्तचित्त' सुख के कारणों तथा शब्दादि विषयों में सदैव प्रवृत्त रहता है तथा अभिसन्धि वाले दुःखदायी कामादि से रहित होता है। इसप्रकार के चित्त वाला जीव संसार के भय से त्रस्त रहता है परन्तु 'एकाग्रचित्त द्वेष, ईर्ष्या आदि दोषों से रहित होता है। खेद, वैर, हत्या, भय आदि विकारों से भी यह मुक्त रहता है, तथा सभी आत्माओं में समान भावना रखता है। उक्त मन से इष्ट वस्तु की सिद्धि होती है। ___ 'निरुद्धचित्त' बाह्य विषयों से विमुख व सर्वदा शुद्ध रहता है। विकल्प वृत्तियों के शान्त (उपशम) हो जाने से निरुद्ध अवस्था प्राप्त होती है। यह स्थिति आत्म-रति वाले मुनियों को प्राप्त होती है। इस स्थिति में अवग्रह (प्रतिबन्ध) आदि की सम्भावना नहीं होती।६।। ___ उपा० यशोविजय जी के मतानुसार जैन-परम्परा में मान्य ध्यान की उच्चतम स्थिति जो पातञ्जलयोगसूत्र में 'समाधि' शब्द से व्यवहित है, उसके लिए चित्त की प्रथम तीन अवस्थाएँ-क्षिप्त, मूढ़ और विक्षिप्त, उपयोगी नहीं हैं। सत्त्वगुण का उत्कर्ष होने से, चित्तनिरोध में स्थिरता के कारण तथा अतिशय सुखमय होने के कारण अन्तिम दो अवस्थाएँ - एकाग्र और निरुद्ध ही 'समाधि' के लिए उपयोगी हैं।" इसलिए प्रथम तीन अवस्थाएँ त्याज्य और अन्तिम दो अवस्थाएँ उपादेय कही गई हैं। प्रथम तीन अवस्थाएँ यद्यपि अनुपयोगी हैं तथापि उनमें से जो तृतीय अवस्था 'विक्षिप्तमन' है वह अभ्यास की प्रारम्भिक अवस्था में इष्ट मानी गई है, क्योंकि तृतीय अवस्था में साधक का चित्त कभी चंचल होकर इधर-उधर भटकता है तो कभी शान्त होकर आनन्द का अनुभव करता है। चूंकि योग की प्रारम्भिक अवस्था में 'विक्षिप्तमन' में स्थिरता का आवागमन होता रहता है इसलिए यह कदाचित् उपयोगी हो सकता है, परन्तु रागादि से ग्रस्त 'क्षिप्तचित्त' और 'मढचित्त' व्युत्थानकारक होने से अनपयोगी ही होता है। विषयों और कषायों से निवृत्त हुआ तथा विविध प्रकार के योगों-मोक्षोपायों में गमन करने वाला चित्त (मन) चंचल होने पर भी अभ्यासकाल में इष्ट माना गया है। 'वचनानुष्ठान में प्रवृत्त 'यातायातचित्त' गमनागमन करते समय १. व्यासभाष्य, पृ०२; अध्यात्मसार, ७/२०/३ अध्यात्मसार,७/२०/४ अध्यात्मसार ७/२०/५ अध्यात्मसार, ७/२०/६ ५. अध्यात्मसार,७/२०/७ अध्यात्मसार, ७/२०/८; योगशास्त्र, स्वो० वृ० १/४१ (क) न समाधावुपयोगं, तिम्रश्चेतोदशा इह लभन्ते । - सत्त्वोत्कर्षात् स्थैर्यादुभे समाधी सुखातिशयात् ।। - अध्यात्मसार, ७/२०/६ (ख) द्वात्रिंशद्वात्रिंशिका, ११/३१, ३२ अध्यात्मसार,७/२०/१० ६ अध्यात्मसार, ७/२०/११ s Jain Education International www.jainelibrary.org For Private & Personal Use Only
SR No.001981
Book TitlePatanjalyoga evam Jainyoga ka Tulnatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAruna Anand
PublisherB L Institute of Indology
Publication Year2002
Total Pages350
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size25 MB
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