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________________ 244 पातञ्जलयोग एवं जैनयोग का तुलनात्मक अध्ययन आ० हरिभद्र ने 'परादृष्टि' को अष्टम योगांग 'समाधि' के समकक्ष इसलिए बताया है क्योंकि इस दृष्टि में होने वाला बोध आत्मा की उस विशिष्टबोध-परिणति का द्योतक है, जो जैन-परम्परागत 'शुक्ल- ध्यान' और पातञ्जलयोग सम्मत 'असंप्रज्ञातसमाधि' में प्राप्त होती है। ङ मन की अवस्थाएँ योग का प्रमुख चिन्त्य विषय आत्मा है और आत्मा मन से सम्बद्ध है। अर्थात् आत्मा का मन से घनिष्ट सम्बन्ध है। आत्मा से संयुक्त होकर पदार्थों का बोध कराने वाली इन्द्रिय को 'मन' कहा जाता है। मन को मनुष्य के बन्ध और मोक्ष का कारण माना गया है। जब मन विषयों में आसक्त होता है तब आत्मा बन्धन में पड़ जाता है और जब विषयासक्ति मिट जाती है तब आत्मा मुक्त हो जाता है। अध्यात्मकल्पद्रुम में भी कहा गया है कि मन की समाधि योग का हेत है तथा तप का निदान है, और मन को केन्द्रित करने के लिए तप आवश्यक है। अतः तप शिवकर्म अर्थात् मोक्ष का मूल कारण है। इसलिए मोक्षप्राप्त करने के लिए मन की चंचलता को रोककर मन को नियन्त्रण में करना आवश्यक है। आ० हेमचन्द्र का मत है कि मन की अवस्थाओं को जाने बिना और उन्हें उच्च स्थिति में स्थित किए बिना योग-साधना संभव नहीं है। अतः सर्वप्रथम उन्होंने योगशास्त्र में स्वानुभव के आधार पर मन की चार अवस्थाओं का निरूपण किया है जो उनका मौलिक चिन्तन है। ये अवस्थाएँ हैं - १. विक्षिप्तमन, २. यातायातमन, ३. श्लिष्टमन, और ४. सुलीनमन। विक्षिप्त मन' अत्यन्त चंचल होता है, वह इधर-उधर भटकता रहता है। 'यातायातमन' विक्षिप्तमन से कुछ कम चंचल होता है इसलिए यह चित्त कुछ आनन्ददायक होता है। वह कभी बाहर जाता है तो कभी अन्दर स्थिर हो जाता है इसलिए इसे 'यातायात' नाम दिया गया है। प्राथमिक अभ्यास वालों के लिए चित्त की ये दो स्थितियाँ होती हैं। अभ्यास से धीरे-धीरे चंचलता कम होती जाती है और स्थिरता आने लगती है। फिर भी मन के ये दोनों भेद चित्त-विकल्प के साथ बाह्य विषयों के ग्राहक भी होते हैं। स्थिर होने के कारण जो चित्त आनन्दित रहता है वह 'श्लिष्टमन' कहलाता है। जैसे-जैसे चित्त की स्थिरता बढ़ती जाती है तदनुरूप आनन्द की मात्रा भी बढ़ती जाती है। जब चित्त अत्यन्त स्थिर हो जाता है तब परमानन्द की प्राप्ति होती है। चित्त की यह स्थिति 'सलीनमन' कहलाती है। आ० हेमचन्द्र का कथन है कि इस प्रकार क्रमशः अभ्यास बढ़ाने से 'निरालम्बन ध्यान' होने लगता है। 'निरालम्बन ध्यान' से समरस प्राप्त करके परमानन्द का अनुभव करना चाहिए।" * १. भारतीय दर्शन में मुक्ति मीमांसा, पृ० १४१ २. मन एव मनुष्याणां कारणं बन्धमोक्षयोः । बन्धाय विषयासंगि मुक्त्यैः निर्विषयं मनः ।। - अमनस्कयोग, २/७६ योगस्य हेतुर्मनसः समाधिः परं निदानं तपसश्च योगः । तपश्च मूलं शिवकर्म आहुः मनः समाधि भज तत्कंथचित् ।। - अध्यात्मकल्पद्रुम, ४/१५ इह विक्षिप्तं यातायातं श्लिष्टं तथा सुलीनं च । चेतश्चतुःप्रकारं तज्ज्ञचमत्कारकारि भवेत् ।।-योगशास्त्र, १२/२ विक्षिप्तं चलमिष्टं, यातायातं च किमपि सानन्दम् । प्रथमाभ्यासे द्वयमपि, विकल्प-विषयग्रहं तत् स्यात् ।। - वही, १२/३ वही, १२/४ एवं क्रमशोऽभ्यासावेशाद् ध्यानं भजेत् निरालम्बनम् । समरसभावं यातः परमानन्दं ततोऽनुभवेत् ।। - वही. १२/५ * Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001981
Book TitlePatanjalyoga evam Jainyoga ka Tulnatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAruna Anand
PublisherB L Institute of Indology
Publication Year2002
Total Pages350
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size25 MB
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