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षष्ठ अध्याय
सिद्धि-विमर्श
पातञ्जल एवं जैनयोग, दोनों परम्पराओं में साधना का लक्ष्य पूर्ण परमात्म अवस्था की प्राप्ति रहा है। यह शुद्ध एवं पूर्ण परमात्म अवस्था, जिसे पातञ्जलयोग में कैवल्य तथा जैन-परम्परा में मोक्ष कहा जाता है, समस्त कर्मों के क्षय से प्राप्त होती है। कहा जाता है कि तप, ध्यानादि रूप योग-साधना के प्रभाव से साधक के समस्त कर्म क्षीण हो जाते हैं। योगाभ्यास द्वारा आध्यात्मिक विकास करता हुआ साधक ज्यों-ज्यों प्रगति करता है, त्यों-त्यों उसका चित्त निर्मल होता जाता है। कर्मक्षय रूप आभ्यन्तर परिणाम की प्राप्ति से पूर्व साधना की अवस्था में ही साधक को योग के आनुषंगिक फल, अद्भुत सामर्थ्य विशेष की प्राप्ति होती है, जिसे योग का बाह्यपरिणाम कहा जा सकता है। उक्त सामर्थ्य विशेष को पातञ्जलयोगसूत्र में विभूति तथा जैन-परम्परा में लब्धि व ऋद्धि' नाम से अभिहित किया गया है। दोनों परम्पराओं में सामान्यतः इनके लिए 'सिद्धि' शब्द का प्रयोग भी हुआ है। चूंकि ये सिद्धियाँ सामान्य व्यक्ति में नहीं पाई जाती, इसलिए इन्हें अलौकिक या लोकोत्तर कहा जाता है। वर्तमानयुग का शिक्षित समाज
नता है। उनका विचार है कि प्राकृतिक नियमों के विरुद्ध होने के कारण संसार में कोई चमत्कार नहीं हो सकता। प्राकृतिक नियमों के विरुद्ध कोई घटना नहीं हो सकती। परन्तु जो कुछ घटित होता है वह प्राकृतिक नियमों का उल्लंघन नहीं है, अपितु सूक्ष्म प्राकृतिक नियमों का अवबोध अर्थात जागरुक होना है। मुनि नथमल के अनुसार, मनुष्य के शरीर में अनेक रासायनिक द्रव्य होते हैं, जो संयोगों से बदलते रहते हैं। भावना, तपस्या और ध्यान के द्वारा शारीरिक विद्युत् और रासायनिक द्रव्यों में परिवर्तन होता है। यथासमय बाह्यालोक में उनका प्रकाशमात्र होता है। __ एक से अनेक होना, अनेक से एक होना, आविर्भूत होना, तिरोहित या अदृश्य होना, प्राचीर-पर्वतादि कठिन वस्तुओं के अन्दर से स्थूल हुए बिना ही निकल जाने या चलने की सामर्थ्य होना, जल की तरह पृथ्वी में उन्मज्जन-निमज्जन करना, आकाश में पक्षी की तरह संचार करना, हाथों से चन्द्र और
तत्त्वार्थसूत्र, १०/२; योगबिन्दु, १३६, ज्ञानार्णव, ३/१३: योगशास्त्र, ४/११३ (क) योगबिन्दु, ३७-४१ (ख) क्षिणोति योगः पापानि चिरकालार्जितान्यपि।
प्रचितानि यथैधांसि, क्षणादेवाशुशुक्षणिः ।। - योगशास्त्र, १/७ (ग) अपि क्रूराणि कर्माणि क्षणाद्योगः क्षिणोति हि । - द्वात्रिंशद्वात्रिंशिका, २६/२५ द्रष्टव्य : पातञ्जलयोगसूत्र, विभूतिपाद । गुणप्रत्ययो हि सामर्थ्यविशेषो लब्धिः । - आवश्यकसूत्र, मलयगिरिवृत्ति, अ० १ जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश, भाग-१, पृ० ४४६ पातञ्जलयोगसूत्र, ३/३७.४/१; योगबिन्दु, २३३-२३५: ज्ञानार्णव, ३५/२६ द्वात्रिंशदद्वात्रिंशिका २६/११, १८, २२ Nothing happens in nature, which is in contradiction with its universal laws.
- कविराज, गोपीनाथ, “योग तथा योगविभूति, कल्याण (योगांक) पृ० ७२४ मुनि नथमल, जैनयोग, पृ० १३०-१३१
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