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________________ आध्यात्मिक विकासक्रम 233 लिए दुःख उत्पन्न न हो, इस प्रकार की अभिलाषा का नाम 'मैत्री भावना है।' अथवा सभी प्राणी संक्लेश व आपत्ति से रहित होकर जीवित रहें तथा वैर, पाप एवं अपमान को छोड़कर सुख को प्राप्त हों - ऐसा विचार करना ‘मैत्री भावना है। जिन्होंने सभी दोषों का त्याग कर दिया है, और जो वस्तु के यथार्थस्वरूप को देखते हैं, उन साधु पुरुषों के गुणों के प्रति आदरभाव हान षों के गुणों के प्रति आदरभाव होना, उनकी प्रशंसा करना, 'प्रमोद भावना' अथवा 'मुदिता भावना है। दीन, पीड़ित, भयभीत और जीवन की याचना करने वाले प्राणियों के दुःख को दूर करने की बुद्धि करुणा भावना है। निशंकता से क्रूर कार्य करने वाले, देव-गुरु की निन्दा करने वाले और आत्म-प्रशंसा करने वाले जीवों पर उपेक्षा भाव रखना 'माध्यस्थ भावना है। इन चारों भावनाओं का पातञ्जलयोगसूत्र में भी वर्णन मिलता है। देश ध्यान के लिए एकान्त प्रदेश अपेक्षित है। आ० शुभचन्द्र ने वह स्थान जहाँ म्लेच्छ व अधर्म जनों का निवास हो, जो दुष्ट राजा के द्वारा शासित हो तथा पाखंडी समूह, मिथ्यादृष्टि, कौलिक, कापालिक, भूत, बेताल, जुआरी, मद्य-पान करने वाला, वटी, शिल्पी, कारू, उन्मत्त, उपद्रवी एवं दुराचारिणी स्त्रियों से व्याप्त हो, का ध्यान में बाधक होने से निषेध किया है। इसके अतिरिक्त उन्होंने तृण, कांटे, सांप की बांबी, पत्थर, कीचड़, भस्म, जूठन, हड्डी, रुधिर आदि से दूषित तथा जीव-जन्तुओं द्वारा प्राधिकृत स्थान को भी ध्यान के लिए अयोग्य बताया है। नों की ओर निर्देश करते हुए आ० शुभचन्द्र एवं आ० हेमचन्द्र ने सिद्धक्षेत्र, महातीर्थ, पुराण पुरुषों से अधिष्ठित और तीर्थंकरों के कल्याणकों से सम्बद्ध क्षेत्र को ध्यान की सिद्धि हेतु उपयुक्त बताया है। इसके अतिरिक्त वृक्षकोटर, जीर्ण उद्यान, श्मशान, गुफा, सिद्धकूट, जिनालय और कोलाहल एवं उपद्रव से रहित जनशून्य गृह आदि को भी ध्यान के योग्य स्थान कहा गया है। जिस स्थान पर रागादि दोषों का उत्पन्न होना सम्भावित न हो, वह सदा ही ध्यान के लिए योग्य माना गया है। परन्तु भगवान महावीर ने ध्यान के लिए किसी स्थान विशेष की कोई मर्यादा निर्धारित नहीं की। उपा० यशोविजय ने भी भगवान की इस मान्यता का समर्थन किया है।१२ काल ध्यान के लिए काल की कोई मर्यादा नहीं है। वह सार्वकालिक है। ध्यान के लिए वही काल उपयोगी १. ज्ञानार्णव. २५/५; योगशास्त्र, ४/११८; तत्त्वार्थाधिगमभाष्य, ७/६; षोडशक, ४/१५, २. ज्ञानार्णव, २५/७ ३. ज्ञानार्णय, २५/११; योगशास्त्र, ४/११६: षोड़शक, ४/१५, ४. ज्ञानार्णव. २५/१०: योगशास्त्र, ४/१२० षोडशक, ४/१५, ज्ञानार्णव, २५/१३-१४; योगशास्त्र, ४/१२१ पातञ्जलयोगसूत्र, १/३३ ज्ञानार्णव, २५/२३-३२ वही. २५/३३-३५ (क) सिमक्षेत्रे महातीर्थे पुराणपुरुषाश्रिते । कल्याणकलिते पुण्ये ध्यानसिद्धिः प्रजायते ।। -वही, २६/१ (ख) तीर्थं वा स्वस्थताहेतुं यत्तद वा ध्यानसिद्धये । कृतासनजयो योगी, विविक्तं स्थानमाश्रयेत् ।। - योगशास्त्र, ४/१२३ १०. ज्ञानार्णव, २६/२-६ ११. गामे वा अदुवा रणे, णेव गामे णेव रण्णे धम्ममायाणह ....| - आचारांगसूत्र, ८/१/२०० १२. अध्यात्मसार,५/१६/२७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001981
Book TitlePatanjalyoga evam Jainyoga ka Tulnatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAruna Anand
PublisherB L Institute of Indology
Publication Year2002
Total Pages350
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size25 MB
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