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________________ 232 पातञ्जलयोग एवं जैनयोग का तुलनात्मक अध्ययन अभाव में ध्येय रूप सिद्ध-परमात्मा के साथ उसकी एकरूपता हो जाती है। इस अवस्था को 'समरसीभाव' भी कहा जाता है। यह निरालम्बन ध्यान है। उक्त क्रमानुसार पहले साधक सालम्बन ध्यान का अभ्यास करता है। उसमें एक स्थूल आलम्बन होता है, जिससे ध्यान के अभ्यास में सुविधा मिलती है। जब इसका अभ्यास परिपक्व हो जाता है तब निरालम्बन ध्यान की योग्यता प्राप्त होती है। जो व्यक्ति सालम्बन ध्यान का अभ्यास किये बिना सीधा निरालम्बन ध्यान करना चाहता है, वह वैचारिक आकुलता से घिर जाता है, इसलिए सर्वप्रथम सालम्बन ध्यान करने का निर्देश दिया गया है। ध्यान का क्रम स्थूल से सूक्ष्म, सविकल्प से निर्विकल्प और सालम्बन से निरालम्बन होना चाहिये। इस क्रम से ध्यान का अभ्यास करने से अल्प समय में ही तत्त्वज्ञान की प्राप्ति हो जाती है। उक्त चारों प्रकार के ध्यानामृत में निमग्न मुनि का मन जगत के तत्त्वों का साक्षात्कार करके अनुभव ज्ञान प्राप्त कर आत्मा की विशुद्धि कर लेता है। धर्मध्यान की मर्यादाएँ (योग्यता) ध्यान में सफलता प्राप्त करने के लिए अभ्यास प्रारम्भ करने से पूर्व कुछ विशिष्ट बातों को जानना आवश्यक है क्योंकि उन्हें समझ लेने पर ही ध्यान करना सुलभ होता है। वैसे तो सभी ध्यान-ग्रन्थों में न्यूनाधिक रूप से उनकी चर्चा की गई है परन्तु जैनाचार्यों ने उनके विषय में अपना विशिष्ट अभिमत प्रकट किया है। ध्यान से सम्बन्धित जिन विषयों का ज्ञान प्राप्त करना आवश्यक है, वे इस प्रकार हैं - भावना, प्रदेश, काल, आसन, आलम्बन, क्रम, ध्याता, अनुप्रेक्षा, लेश्या, लिंग और फल। उपा० यशोविजय ने उक्त परम्परा का ही अनुसरण किया है, जबकि आ० हेमचन्द्र ने ध्याता, ध्येय और फल का ही निरूपण किया भावना धर्मध्यान में योग्यता प्राप्ति हेतु उपा० यशोविजय ने ज्ञान, दर्शन, चारित्र और वैराग्य - इन चार भावनाओं का उल्लेख किया है। इन भावनाओं के अभ्यास से मानसिक स्थिरता प्राप्त होती है और स्थिर चित्त वाला पुरुष ही ध्यान की योग्यता प्राप्त करता है। दूसरे में ऐसी योग्यता नहीं होती। उमास्वाति, शुभचन्द्र व हेमचन्द्र१ आदि जैनाचार्यों ने ध्यान की सिद्धि हेतु मैत्री, प्रमोद, करुणा और माध्यस्थ-इन चार भावनाओं के चिन्तन पर जोर दिया है। सभी संसारी जीवों में समानता का भाव रखते हुए उनके ॐoing योगशास्त्र, १०/३ २. अलक्ष्य-लक्ष्यसम्बन्धात्, स्थूलात् सूक्ष्म विचिन्तयेत् । सालम्बनाच्च निरालम्ब, तत्त्ववित् तत्त्वमञ्जसा ।। - योगशास्त्र, १०/५ एवं चतुर्विध ध्यानामृतमग्नं मुनेर्मनः । साक्षात्कृतजगत्तत्त्वं, विधत्ते शुद्धिमात्मनः ।। - योगशास्त्र १०/६ ध्यानशतक, २८, २६ अध्यात्मसार.५/१६/१८, १६ योगशास्त्र,७/१ वही. ५/१६/१६ अध्यात्मसार.५/१६/२०.२१ मैत्रीप्रमोदकारुण्यमाध्यस्थानि सत्त्वगुणाधिकक्लिश्यमानाविनेयेषु। - तत्त्वार्थसूत्र, ७/६ १०. चतस्रो भावना धन्याः पुराणपुरुषाश्रिताः । मैत्र्यादयश्चिरं चित्ते विधेया धर्मसिद्धये ।। - ज्ञानार्णय, २५/४ ११. मैत्री-प्रमोद-कारुण्य-माध्यस्थानि नियोजयेत् । धर्मध्यानमुपस्कतु, तद्धि तस्य रसायनम् ।। - योगशास्त्र, ४/११७ Jain Education International For Private & Personal use.Only www.jainelibrary.org
SR No.001981
Book TitlePatanjalyoga evam Jainyoga ka Tulnatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAruna Anand
PublisherB L Institute of Indology
Publication Year2002
Total Pages350
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size25 MB
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