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________________ आध्यात्मिक विकासक्रम पंखुड़ियों वाले कमल की कल्पना कर उसमें शेष आठ व्यंजनों य, र, ल, व, श, ष, स, ह का चिन्तन करता है।' इस प्रकार निरन्तर ध्यान करने वाला योगी सम्पूर्ण श्रुत का ज्ञाता हो जाता है । प्रकारान्तर से मन्त्रराज (अहं) अनाहत देव, प्रणव (ऊ), गुरु, पंचनमस्कारमन्त्र, सप्ताक्षर मन्त्र, सोलह अक्षरयुक्त महाविद्या, छह वर्णयुक्त विद्या, चार वर्णयुक्त मन्त्र, दो वर्णयुक्त मन्त्र, अ वर्ण, पांच वर्णमय विद्या, मंगल-उत्तम-शरण पदसमूह, तेरह अक्षरवाली विद्या, पाँच वर्णमय मन्त्र, आठ वर्णयुक्त मन्त्र, मायावर्ण, महामाया, सप्ताक्षर मंत्र, प्रणव- शून्य- अनाहतत्रय, इत्यादि बहुत से मंत्रों व विद्याओं के चिन्तन का निर्देश देते हुए सबका पृथक् पृथक् फल भी बताया गया है। पदस्थध्यान के प्रभाव से त्रिकालवर्ती पदार्थों का ज्ञान तथा पद्मश्री मन्त्रमयी देवता की आराधना से मुक्ति प्राप्ति की सुकरता, इन्द्रियातीत ज्योति का प्रादुर्भाव आदि फल भी कहा गया है।" (ग) रूपरथध्यान सशरीर अरिहन्त भगवान् की शान्त मुद्रा का स्थिर चित्त से ध्यान करना 'रूपस्थध्यान' है । ज्ञानार्णव एवं योगशास्त्र में सात धातुओं से रहित व समस्त अतिशयों व प्रतिहार्यो आदि से विभूषित समवसरण में विराजमान आद्य जिनेन्द्र के स्वरूप का चिन्तन करने को 'रूपस्थध्यान' कहा गया है' अथवा राग-द्वेष एवं मोहादि विकारों से रहित जिनेन्द्र प्रतिमा के रूप का जो ध्यान किया जाता है, वह 'रूपस्थ-ध्यान है। इस ध्यान में ध्याता को महेश्वर", आदिदेव, अच्युत, सन्मति, सुगत, महावीर और वर्धमान आदि अनेक सार्थक पवित्र नामों से उपलक्षित कर अनन्त वीर्ययुक्त व रोगरहित सर्वव्यापी देव का स्मरण करने का निर्देश दिया गया है। फलस्वरूप वीतराग परमात्मा रूपी ध्येय से तन्मयता होने लगती है। (घ) रूपातीतध्यान ज्ञानार्णव एवं योगशास्त्र में अमूर्त, निराकार, चिदानन्दस्वरूप निर्मल, निरंजन एवं अविनाशी, सिद्धपरमात्मा के ध्यान को 'रूपातीतध्यान' कहा गया है। रूपातीत ध्यान भी रूपस्थ ध्यान की तरह ध्येय रूप सिद्ध परमात्मा के साथ एकरूपता की प्राप्ति में परम सहायक है।" इस अवस्था में कोई भी आलम्बन नहीं रहने से योगी सिद्ध-परमात्मा की आत्मा में तन्मय हो जाता है तथा ध्याता और ध्यान इन दोनों के १. २. ३. ४. ५. ६. ७. ज्ञानार्णव, ३५ / ३-५ योगशास्त्र, ८ / २-४ इत्यजस्त्रं स्मरन्योगी प्रसिद्धां वर्णमातृकाम् । श्रुतज्ञानाम्बुधेः पारं प्रयाति विगतन्त्रमः । ज्ञानार्णव ३५/६ ज्ञानार्णव, ३५ / ७-११७ योगशास्त्र, ८ /६-८० योगशास्त्र, ८ / ५२३, २७ अर्हतो रूपमालम्ब्य ध्यानं रूपस्थमुच्यते । - योगशास्त्र, ६/७ ज्ञानार्णव ३६वां प्रकरण योगशास्त्र, ६/१-७° योगशास्त्र, ६/८-१० ज्ञानार्णय, ३६/२७-३१ - ८. ६. योगशास्त्र ६/११-१२, १४ १०. (क) चिदानन्दमयं शुद्धममूर्तं ज्ञानविग्रहम् । Jain Education International 231 स्मरेत्रात्मनात्मानं तद्रूपातीतमिष्यते । ज्ञानार्णव, ३७/१६ (ख) अमूर्तस्य चिदानन्दरूपस्य परमात्मनः । निरंजनस्य सिद्धस्य, ध्यानं स्याद् रूपवर्जितम् ।। - योगशास्त्र, १०/१ ११ इत्यजस्त्रं स्मरन् योगी तत्स्वरूपावलम्बनः । तन्मयत्यमवाप्नोति ग्राह्यग्राहकवर्जितम् । योगशास्त्र, १०/२ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.001981
Book TitlePatanjalyoga evam Jainyoga ka Tulnatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAruna Anand
PublisherB L Institute of Indology
Publication Year2002
Total Pages350
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size25 MB
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