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पातञ्जलयोग एवं जैनयोग का तुलनात्मक अध्ययन
उस शरीर और कमल की बची हुई भस्म को उठाकर स्वयं शान्त हो जाती है। इसके साथ ही साधक वायु के बीजाक्षर 'सोऽयं' का ध्यान करता है। वारुणी धारणा'
इस धारणा के अन्तर्गत साधक अमृत के समान वृष्टि बरसाने वाले मेघ समूह से व्याप्त और इन्द्रधनुष और बिजली की गर्जना से युक्त ऐसे आकाश का चिन्तन करता है जो निरन्तर बड़ी-बड़ी बूंदों से वर्षा करके जलप्रवाह के द्वारा अर्धचन्द्राकार वरुण बीजाक्षर से चिह्नित रमणीय वरुणपुर को डुबोता हुआ पूर्वोक्त भस्म हुए शरीर से उत्पन्न उस समस्त धूलि को धो डालता है। तत्त्वरूपवती (तत्त्वभू) धारणा'
इसके अन्तर्गत साधक सप्त धातुओं से रहित पूर्ण चन्द्र के समान निर्मल कान्ति वाले सर्वज्ञ सदृश अपने शुद्ध आत्मा का चिन्तन करता है। उसके पश्चात् सिंहासन पर आरूढ़ होकर समस्त अतिशयों से सुशोभित समस्त कर्मों के विनाशक, कल्याणकारी महिमा से सम्पन्न, अपने शरीर में स्थित निराकार आत्मा का स्मरण-चिन्तन करता है।
इस प्रकार निरन्तर पंचविध धारणाओं से युक्त पिंडस्थध्यान में दृढ़तर अभ्यास को प्राप्त हुआ योगी थोड़े ही समय में अन्य के द्वारा असाध्य मोक्ष-सुख को प्राप्त कर लेता है। पिण्डस्थध्यान का अभ्यास करने वाले साधक की समीपता पाकर दुष्ट विद्याएँ - उच्चाटण, मारण, स्तंभन, विद्वेषण, मन्त्र, मण्डल आदि शक्तियाँ निरर्थक हो जाती हैं। शाकिनी, दुष्ट ग्रह और राक्षस आदि भी अपनी दुर्वासना को छोड़ देते हैं। संक्षेप में इस ध्यान में आत्मशक्तियों के जागृत होने पर बाह्य विरोधी शक्तियाँ वशीभूत हो जाती हैं और साधक का मन क्रमशः स्थिर होता हुआ शुक्लध्यान के योग्य बन जाता है।
(ख) पदस्थध्यान
पवित्र पदों का आलम्बन लेकर जो अनुष्ठान या चिन्तन किया जाता है उसे 'पदस्थध्यान' कहते हैं। इस ध्यान का मुख्य आलम्बन शब्द है, क्योंकि स्वरों तथा व्यंजनों से शब्दों की उत्पत्ति होती है। इसलिए इस ध्यान को वर्णमातका का ध्यान भी कहा जाता है। इसमें सर्वप्रथम नाभिकन्द पर स्थित सोलह पंखुड़ियों वाले प्रथम कमल में प्रत्येक पत्र पर क्रमशः सोलह स्वरों अ, आ, इ, ई, उ, ऊ, ऋ, लु, ए, ऐ, ओ, औ, अं अः की भ्रमण करती हुई पंक्ति का चिन्तन किया जाता है। तत्पश्चात् हृदयस्थ कर्णिका सहित कमल की चौबीस पंखुड़ियों पर क, ख, ग, घ, ङ, च, छ, ज., झ, ञ, ट, ठ, ड, ढ, ण, त, थ, द, ध, न, प, फ, ब, भ, म इन २५ व्यंजनों का चिन्तन किया जाता है। इसके बाद साधक मुख में तीसरे आठ
१. २.
ज्ञानार्णव, ३४/२४-२७: योगशास्त्र,७/२१. २२ ज्ञानार्णव ३४/२८-३०; योगशास्त्र ७/२३-२५ (क) इत्यविरतं स योगी पिण्डस्थे जातनिश्चलाभ्यासः ।
शिवसुखमनन्यसाध्यं प्राप्नोत्यचिरेण कालेन ।। - ज्ञानार्णव, ३४/३१ (ख) साभ्यास इति पिण्डस्थे, योगी शिवसुखं भजेत् । - योगशास्त्र, ७/२५ ज्ञानार्णव, ३४/३३: योगशास्त्र.७/२६-२८ (क) पदान्यालम्ब्य पुण्यानि योगिभिर्यविधीयते ।
तत्पदस्थं मतं ध्यानं विचित्रनयपारगैः ।। - ज्ञानार्णव, ३५/१ (ख) यत्पदानि पवित्राणि, समालम्य विधीयते ।
तत्पदस्थं समाख्यातं. ध्यानं सिद्धान्तपारगैः ।। - योगशास्त्र.८/१ ध्यायेदनादिसिद्धान्तप्रसिद्धां वर्णमातृकाम् । निःशेषशब्दविन्यासजन्मभूमि जगन्नताम् ।। - ज्ञानार्णव, ३५/२
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